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________________ १९८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन के अवलम्बन से मिथ्यात्व और कषाय का उपशम-क्षयोपशम हो जाता है और जीव इतनी निर्मलता प्राप्त कर लेता है कि उसमें निश्चयधर्म के अवलम्बन की सामर्थ्य आ जाती है। सापेक्षता की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्या निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में कार्य-कारणात्मक साध्य-साधकभाव होने से परस्परसापेक्षता सिद्ध होती है, किन्तु पूर्वोक्त विद्वद्वर्ग को व्यवहारधर्म का निश्चयधर्मसाधक होना स्वीकार्य नहीं है और संकट यह है कि परस्परसापेक्षता का वे अपलाप भी नहीं कर सकते, क्योंकि इससे निश्चयनय के मिथ्या होने का प्रसंग आता है। इसलिए उन्होंने सापेक्षत्व को तो स्वीकार कर लिया, किन्तु उसकी एक नई व्याख्या कर डाली, जो नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है। अपनी व्याख्या को प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं - “प्रत्येक नय सापेक्ष होता है, इसका तो हमने कहीं निषेध किया ही नहीं। परन्तु यहाँ पर “सापेक्ष' का अर्थ क्या है इसे जान लेना आवश्यक है। ..." निरपेक्षत्व का अर्थ है प्रत्यनीक ( विरुद्ध ) धर्म का निराकरण तथा सापेक्षत्व का अर्थ है उपेक्षा। ..." आचार्यों का यहाँ यही कहना है कि यह जितना भी पर्यायाश्रित व्यवहार है वह रागमूलक होने से मोक्षमार्ग में ऐसे व्यवहार को छुड़ाया गया है। 'छुड़ाया गया है' इसका अर्थ है 'उसमें उपेक्षा कराई गई है'। साधक व्यवहार को छोड़ता नहीं, किन्तु निश्चयप्राप्तिरूप मूल प्रयोजन को ध्यान में रखकर उसे करता हुआ भी उसमें उपेक्षा रखता है और मात्र निश्चय के विषय को आश्रय करने योग्य स्वीकार कर निरन्तर अपने उपयोग को उस दिशा में मोड़ने का प्रयत्न करता रहता है। .... यदि मोक्ष की प्राप्ति होती है तो एकमात्र इसी मार्ग से होती है।" निष्कर्ष यह कि उक्त विद्वानों के अनुसार प्रतिपक्षी धर्म को 'छोड़ने योग्य' समझना ही उसके प्रति सापेक्षभाव रखना कहलाता है। इस व्याख्या के द्वारा उक्त १. “अयं व्यवहारमोक्षमार्गः .... .... सुवर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरंग साधको भवति।" पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १६० २. सप्तम अध्याय में उनका सापेक्षता-विरोधी कथन उद्धृत किया जा चुका है। जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ४३६ ३. “निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः सापेक्षत्वमुपेक्षा, अन्यथा प्रमाणनयाविशेष प्रसङ्गात्। धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्णयानां प्रकारान्तरासम्भवाच्च। प्रमाणात् तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेस्तत्प्रतिपत्तेरन्यनिराकृतिश्चेति विश्वोपसंहतिः।". ___ अष्टशती/देवागमकारिका, १०८ ४. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ८०२-८०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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