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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १८१ स्थिति का छेदक है। श्रीमद्देवसेन का मत है कि " सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं होता, अपितु परम्परा से मोक्ष का हेतु होता है, क्योंकि वह पुण्य निदानपूर्वक ( भोगाकांक्षापूर्वक ) नहीं किया जाता । " २ परम्परा दो प्रकार की होती है - एक तो व्यवहाररत्नत्रय द्वारा गुणस्थानों में क्रमश: उन्नति करते हुए उसी भव में मोक्ष प्राप्त करना, दूसरी वर्तमान भव में किये गये उत्कृष्ट पुण्यों के फलस्वरूप अगले भव में मोक्ष के अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्तकर मोक्ष पाना । भवान्तर में मोक्ष प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसका वर्णन आचार्य जयसेन ने पञ्चास्तिकाय गाथा १७० की टीका में विस्तार से किया है। निष्कर्ष यह कि सम्यक्त्वसहित शुभोपयोग मात्र बन्ध का कारण नहीं है। उसके दोनों पक्ष हैं। उससे अशुभराग की निवृत्ति द्वारा आत्मविशुद्धि होती है, जिससे शुद्धात्मभाव में स्थित होने योग्य क्षमता प्राप्त होती है तथा पुण्यबन्ध भी होता है, किन्तु ऐसा पुण्यबन्ध होता है जो संसारस्थिति का छेदक है और अगले भवों में मुक्ति की साधनायोग्य परिस्थितियाँ जुटाता है। इस प्रकार सम्यक्त्वसहित शुभोपयोग के परम्परया मोक्षसाधक होने से निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में साध्यसाधकभावरूप परस्परसापेक्षता है। निश्चयधर्म के पूर्व भी व्यवहारधर्म ૪ उक्त विद्वानों का यह कथन भी आगमसम्मत नहीं है कि निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म होता ही नहीं। जब व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का हेतु है, तो उसके पूर्व तो होगा ही । ऐसी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि पहले साधक आत्मध्यान १. परमात्मप्रकाश / ब्रह्मदेवटीका २ / ६१ २. सम्मादिट्ठीपुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्खस्य होई हेउं जइ वि णिदाणं ण सो कुणइ || भावसंग्रह / गाथा ४०४ ३. (क) सा खलु दुविहा भणिया परंपरा जिणवरेहि सव्वेहिं । तब्भवगुणठाणे विहु भवंतरे होदि सिद्धिपरा ।। द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र / गाथा ३४१ पर उद्धृत (ख) " यः कोऽपि शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा आगमभाषया मोक्षं वा, व्रततपश्चरणादिकं करोति स निदानरहितपरिणामेन सम्यग्दृष्टिर्भवति, तस्य तु संहननशक्त्याभावाच्छुद्धात्मस्वरूपे स्थातुमशक्यत्वाद् वर्तमानभवे पुण्यबन्ध एव, भावान्तरे परमात्मभावनास्थिरत्वे सति नियमेन मोक्षो भवति ।। " तु पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १७१ ४. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग १ / पृ० १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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