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________________ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / ९३ जा सकता है कि इन मनुष्यादि पदार्थों में जो जानने-समझने, सुख-दुःखादि अनुभव करने तथा विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करने की शक्ति है, वही जीव है, यह आँखों से दिखाई देने वाला शरीर जीव नहीं है। इस प्रकार ज्ञानी उपदेष्टा जीव की देहसंयोगजन्य मनुष्यादि पर्यायों में 'जीव' शब्द का उपचार कर अज्ञ शिष्यों को उसके स्वरूप का आभास कराते हैं। अभेदविशेष का द्योतन __ जीव और शरीर सर्वथा भिन्न द्रव्य हैं, किन्तु संसारावस्था में नीर-क्षीर के समान अत्यन्त मिश्रित हैं। उनके प्रदेश एक-दूसरे से इतने संश्लिष्ट हैं कि देह के परमाणुओं में चेतना का अनुभव होता है, जिससे देह के छेदन-भेदन से जीव को दुःख की अनुभूति होती है तथा देह के साथ विषयों का सम्पर्क होने से सुख का वेदन होता है। इस तरह सर्वथा भिन्न द्रव्य होते हुए भी जीव और देह में एक प्रकार का अभेद है। यह एक विलक्षण अभेद है जो एकद्रव्यरूप न होते हुए भी एकद्रव्य-सदृश है। इसीलिए जिनेन्द्रदेव ने जीव और शरीर में न सर्वथा भेद बतलाया है, न सर्वथा अभेद, अपितु कथंचित् भेदाभेद बतलाया है। इस अभेदविशेष की प्रतीति शरीर के लिए उपचार से 'जीव' संज्ञा का प्रयोग करने पर ही हो पाती है और इस रीति से अभेदविशेष की प्रतीति होने पर ही शरीरघात से जीवघातरूप हिंसा घटित होती है, अन्यथा नहीं। अत: इसी प्रयोजन से जिनेन्द्रदेव ने शरीर में 'जीव' शब्द का उपचार किया है। इसी प्रकार अपनी मोहरागद्वेषरूप अशुद्धपर्याय के साथ जीव के अभेद की अनुभूति कराने के लिए जीवसंयुक्त मोहरागद्वेष में जीव संज्ञा का उपचार किया गया है। ऐसा न करने पर रागादि के साथ जीव का अभेद सिद्ध नहीं होगा, जिससे कर्मबन्ध भी घटित नहीं होगा और कर्मबन्ध के अभाव में मोक्ष का उपदेश भी निरर्थक ठहरेगा। लौकिक सम्बन्ध का द्योतन संसारावस्था में जीव के साथ शरीर, स्त्री-पुरुष, सन्तान, धन-सम्पत्ति आदि १. णहि इंदियाणि जीवा काया पण छप्पयार पण्णत्ता । जं हवदि तेसु णाणं जीवो ति य तं परूवंति ।। पञ्चास्तिकाय/गाथा १२१ जाणदि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं विभेदि दुक्खादो । । कुव्वति हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ।। वही/गाथा १२२ २. समयसार/आत्मख्याति/गाथा ४६ ३. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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