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________________ असद्भूतव्यवहारनय / ८३ होते हैं। वे सब बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी असद्भूतव्यवहारदृष्टि ( असद्भूतव्यवहारनय ) से देखने पर ही दिखाई देते हैं। असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश के प्रयोजन अब इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि असद्भूतव्यवहारनय का अवलम्बन कर शिष्यों को उपदेश देना क्यों आवश्यक है ? जिन प्रयोजनों से यह आवश्यक है उनकी यहाँ विस्तार से चर्चा की जा रही है। संसारपर्याय का उपपादन निरुपाधिक जीव ( जीवनामक मूलपदार्थ ) पर दृष्टि डालने से वह शरीर, कर्म और मोहरागादि भावों से रहित दिखाई देता है। अत: मूलपदार्थावलम्बी निश्चयनय से उपदेश देने पर जीव संसारी सिद्ध नहीं होता। जब सोपाधिक जीव को दृष्टि का विषय बनाया जाता है तभी वह शरीर से संश्लिष्ट, कर्मों से बद्ध और मोहरागादिपरिणाममय दृष्टिगोचर होता है। इसलिए सोपाधिकपदार्थावलम्बी असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश से ही जीव की संसारपर्याय दृष्टि में आती है, जिसे जानकर जीव मोक्ष के लिए उद्यत होता है। हिंसा के सद्भाव का उपपादन बाह्यसम्बन्धावलम्बी असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश से जीव और शरीर का संश्लेष-सम्बन्ध दृष्टि में आता है और उनमें जो कथंचित् अभेद है उसकी उपपत्ति होती है। इस कथंचित् अभेद से ही शरीरघात करने पर जीवघात घटित होता है और उससे हिंसा के पाप और कर्मबन्ध की युक्तिमत्ता सिद्ध होती है। यदि केवल मौलिकभेदप्रदर्शक निश्चयनय से उपदेश दिया जाय तो उससे जीव, शरीर से सर्वथा भिन्न सिद्ध होगा जिससे त्रस और स्थावर जीवों का नि:शंक ( प्रमत्तयोगपूर्वक ) वध करने में जीवघात घटित नहीं होगा। अत: शरीरघात से जीवघात की सत्यता सिद्ध करने के लिए जिनेन्द्रदेव ने व्यवहारनय से भी उपदेश दिया है। इस बात का स्पष्टीकरण समयसार में किया गया है। प्रश्न उठाया गया है कि यदि शरीरादि पदार्थ पुद्गलस्वभावात्मक हैं तो उन्हें जिनेन्द्रदेव ने जीव शब्द से सचित क्यों किया है ? इसके उत्तर में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - जिनेन्द्रदेव ने शरीर और रागादि भावों से जीव के कथंचित् अभेद की प्रतीति कराने के लिए ( बाह्यसम्बन्धावलम्बी असद्भत ) व्यवहारनय से उपदेश दिया है।' उनके अभिप्राय को आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने निम्नलिखित व्याख्यान में स्पष्ट किया है - १. यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावस्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेत् - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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