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________________ उपसंहार २३५ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (प्रवृति ) ही आस्रव हैं और इन प्रवृतियों का निरोध ही संवर है। इस प्रकार संवर शब्द भी योग-दर्शन के 'योग' शब्द का ही पर्याय माना जा सकता है। जैन योगानुसार तप उस विधि को कहते हैं जिससे बद्ध कर्मों का नाश होता है अथवा वह क्रिया है जिससे आत्मा का परिशोधन होता है। तप शारीरिक एवं मानसिक विकारों को नष्ट करता है, अतः विकारों को नष्ट करने की प्रक्रिया से स्वतः चित्तवृतियों का निरोध हो जाता है। इस दृष्टि से जैनों का 'तप' शब्द भी 'योग' के ही अर्थ को व्यंजित करता है । किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर करने को ध्यान कहते हैं तथा उससे निर्जरा एवं संवर दोनों ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टि से ध्यान भी योग का ही पर्यायवाची ठहरता है। समाधि की अवस्था में साधक आत्मस्वरूप में लीन होता है और यह क्रिया प्रवृत्तियों के निरोध के बिना सम्भव नहीं। इसलिए 'समाधि' शब्द भी योग के अर्थ में ही आता है। ___ जैन योग की आधारगत विशेषताएँ-योग का आधार आचार है। क्योंकि आचार से ही योगी के संयम में वृद्धि होती है, समता का विकास होता है और अन्ततः इसी से साधक आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुंचता है। इसीलिए जैनयोग में चारित्र अथवा आचार को विशेष स्थान प्राप्त है। जैन योगानुसार श्रमण के साथ ही साथ श्रावक भी व्रती होते हैं । इसीलिए आचार की दो कोटियां निर्धारित हैं-एक साधु अथवा श्रमण-विषयक और दूसरी गृहस्थ अथवा श्रावक-विषयक । श्रमण का आचार पूर्णतः त्यागमय होता है, श्रावक का आचार आंशिक श्रमण का ध्येय सम्पूर्णभावेन आध्यात्मिक विकास होता है, जबकि श्रावक व्यावहारिक जीवन यापन में आध्यात्मिक समाधान चाहता है। वैदिक परम्परा में भी गृहस्थ-जीवन के साथ संन्यास आश्रम को महत्त्व प्राप्त है और उनकी अलग-अलग आचारसंहिताएं निर्धारित हैं। बौद्ध परंपरा में भी भिक्षु और उपासक की अलग-अलग आचार संहिताओं का विधान है। जैन आचार में विशेषतः श्रमण के नियमों-उपनियमों का सूक्ष्माति-. सूक्ष्म विवेचन हुआ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है । योग-साधना के लिए किसी न किसी रूप में सम्यक् आचारपालन की अपेक्षा होती ही है। पञ्च महाव्रत-पातंजल योगदर्शनानुसार अष्टांगमार्ग का उद्देश्य मन, इन्द्रियों तथा शरीर की शुद्धि करना है और यम के अन्तर्गत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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