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________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २२७ बौद्ध-योग के अनुसार निर्वाण एक आध्यामिक अनुभव है, जिसकी प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक विकास अर्थात् चितशुद्धि अपेक्षित है, क्योंकि चित्तशुद्धि अथवा जीवन की विशुद्धि ही निर्वाण है।' निर्वाण की अवस्था में, कोई चित्तमल नहीं रहता अर्थात् यह सम्पूर्ण कर्मक्षयों के कारण होने वाली अन्तिम भूमिका है। यही कारण है कि जो साधक अथवा योगी इस अवस्था में पहुँचता है, उसे किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं रहती, संसार में पुनः लौटने का भय नहीं होता तथा वह परमसुख या आनन्द प्राप्त करता है।' निर्वाण की स्थिति और स्वरूप के सम्बन्ध में स्वयं बुद्ध ने कोई निर्णायक उत्तर न देकर उसे अव्याकृत कहा है। लेकिन उनके बाद आचार्यों ने दीप-निर्वाण का आधार लेकर निर्वाण विषयक अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। मिलिन्दप्रश्न के अनुसार निर्वाण का स्वरूप इस प्रकार है-तष्णा के निरोध से उपादान का, उपादान के निरोध से भव का, भव के निरोध से जन्म का और पुनर्जन्म रुक जाने से बूढ़ा होना, मरना, शोक, दुःख, बेचैनी, परेशानी आदि सभी प्रकार के दुःख समाप्त हो जाते हैं। तुष्णा, राग-द्वेष, मोह आदि संसार की जड़ तथा साधक (योगी) के मन को चश्चल बनाने के कारण हैं, जिनसे विविध प्रकार के कर्मों का आस्रव होता है । अतः राग-द्वेष, मोह आदि का क्षय कर देना ही निर्वाण है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार तेल और बत्ती के रहने पर दीपक जलता है और उनके अभाव में वह बुझ जाता है, उसी प्रकार शरीर छूटने पर अर्थात् मरने के बाद अनासक्ति के कारण अनुभव की गई ये वेदनायें शान्त पड़ जाती हैं। निर्वाण की स्थिति में दुःख का लेश भी नहीं रहता, बल्कि वह स्थिति आनन्द की अत्यधिक पराकाष्ठा १. विसुद्धीति सबमलविरहितं अच्चन्तपरिसुद्ध निब्बाणं वेदितव्यं । -बिसुद्धिमग्ग, ११५ २. निब्बानं परमं सुखं । -धम्मपद, १५।८ ३. मिलिन्दप्रश्न, पृ० ८५ ४. छत्वा रागञ्च दोसञ्च ततो निब्बानामेहिसि । -धम्मपद, २५।१० ५. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ५०१ ६. मिलिन्दप्रश्न, पृ० ३८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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