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________________ २२४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (२४) आहारकलब्धि-वाद अथवा चर्चा में निरुत्तर अथवा पराजित होने पर, उसका संशय निवारण करने के लिए अथवा तीर्थंकरों का दर्शन करने के लिए योगी अपने शरीर से एक हाथ का पुतला निकालते हैं जो तीर्थंकर के पास जाता है और लौटकर योगी के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है । इस लब्धि को आहारकलब्धि कहते हैं । (२५) शीतललेश्यालब्धि-अत्यन्त करुणाभाव से प्रेरित होकर तेजोलेश्या से रक्षार्थ शीतललेश्या को छोड़ने की शक्ति प्राप्त होना शीतललेश्यालब्धि है। (२६) वैक्रियलब्धि-इस लब्धि के प्रभाव से शरीर को छोटा-बड़ा, भारी-हल्का किया जाता है। (२७) अक्षीणमहानसलब्धि- इस लब्धि के प्रभाव से भिक्षा या भोजन सामग्री तब तक समाप्त नहीं होती जब तक लब्धिधारी योगी स्वयं आहार न कर ले। (२८) पुलाकलब्धि--इस लब्धि के द्वारा योगी को ऐसी शक्ति प्राप्त होती है कि वह अपने दण्ड से पुतले को निकाल कर शत्रु सेना को पराजित कर सकने में समर्थ होता है । यह शक्ति अदृश्य रहती है। प्रवचनसारोद्धार में वर्णित केवलीलब्धि के स्थल पर आवश्यक नियुक्ति में दो स्वतन्त्र लब्धियों का उल्लेख है-केवलज्ञानलब्धि और केवलीलब्धि : प्रवचनसारोद्धार में मनःपर्याय के दो भेद के आधार पर विपुलमति एवं ऋजुमति इन दो लब्धियों का वर्णन हुआ है, जब कि आवश्यकनियुक्ति के अनुसार इन दोनों के बदले मनःपर्याय नामक एक ही लब्धि का उल्लेख है। प्रवचनसारोद्धार में उल्लिखित क्षीरमधुर सपिरास्रव नामक एक लब्धि के बदले आवश्यकनियुक्ति में मध्वास्रव, सपिरास्रव तथा क्षीरास्रव इन तीन लब्धियों का उल्लेख है। प्रवचनसारोद्धार की चारणलब्धि आवश्यकनियुक्ति में 'आकाशगमित्व' की संज्ञा से अभिहित है। प्रवचनसारोद्धार में वर्णित गणधर तथा शीतललेश्या नाम की लब्धियां आवश्यकनियुक्ति में नहीं पाई जाती। वस्तुतः लब्धियाँ यौगिक साधना से ही उत्पन्न होती हैं, फिर भी इन लब्धियों के व्यामोह से योगी को अलग ही रहने का आदेश है, क्योंकि योगी का लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार करना अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति होता है, न कि लब्धियों के द्वारा चमत्कार प्रदर्शित करना। हां, इन लब्धियों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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