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________________ अध्यात्म-विकास २०५ - को संवेद्यापद' अथवा अप्रतिपाति कहा गया है । इन आठ दृष्टियों में जीव को किस प्रकार का ज्ञान अथवा सविशेष तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है, उसको आठ दृष्टान्तों के द्वारा समझाया गया है – (१) तृणाग्नि, (२) कण्डाग्नि, (३) काष्ठाग्नि, (४) दीपकाग्नि, (५) रत्न की प्रभा, (६) नक्षत्र की प्रभा, (७) सूर्य की प्रभा एवं (८) चंद्र की प्रभा । जिस प्रकार इन अग्नियों की प्रभा उत्तरोत्तर तीव्र और स्पष्ट होती जाती है, उसी प्रकार इन आठ दृष्टियों में भी सविशेष-बोध की प्राप्ति स्पष्ट होती जाती है । इन आठ दृष्टियों के संदर्भ में योगदर्शन में प्रतिपादित यमनियमादि तथा खेद, उद्वेगादि आठ दोषों के परिहार का वर्णन भी किया जाता है । यहाँ आठ दृष्टियों का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है । (१) मित्रा दृष्टिः - इस दृष्टि में दर्शन की मंदता, अहिंसादि यमों का पालन करने की इच्छा और देव पूजादि धार्मिक अनुष्ठानों में अखेदता होती है । यद्यपि इस दृष्टि में साधक को ज्ञान तो प्राप्त होता है, तथापि उस ज्ञान से स्पष्ट तत्त्वबोध नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्व अथवा अज्ञान इतना घना होता है कि वह दर्शन, ज्ञान पर आवरण डाल देता है । फिर भी साधक सर्वज्ञ को अन्तःकरणपूर्वक नमस्कार करता है, आचार्यं एवं तपस्वी की यथोचित सेवा करता है तथा औषधदान, शास्त्रदान, वैराग्य, पूजा, श्रवण-पठन, स्वाध्याय आदि क्रियाओं - भावनाओं का पालन-चिन्तन करता है । माध्यस्थादि भावनाओं का चिन्तन करने और मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों को जुटाते रहने १. जिसमें वेद्य विषयों का यथार्थस्वरूप जाना जा सके और उसमें अप्रवृत्ति बुद्धि पैदा हो वह वेद्य-संवेद्यपद है और जिसमें बाह्य वेद्य विषयों का यथार्थस्वरूप में संवेदन और ज्ञान न किया जा सके वह अवेद्यसंवेद्यपद है । २. तृणगोमय काष्ठाग्निकण दीपप्रभोपमा । रत्नतारार्कचंद्राभाः क्रमेणेक्ष्वादि सन्निमा । —योगावतारद्वात्रिंशिका, २६ ३. यमादियोगयुक्तानां खेदादिपरिहारतः । अद्वेषादिगुणस्थान क्रमेणैषा सतां मता ॥ – योगदृष्टिसमुच्चय, १६ ४. मित्राद्वात्रिंशिका, १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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