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________________ १९३ अध्यात्म-विकास आगे की ओर सभी भूमिकाओं में कषायों की अत्यधिकता होती है, अतः वे भूमिकाएं मनुष्य की ही हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया आदि की तीव्रता मनुष्य में ही पायी जाती है। इस प्रकार प्रथम भूमिका में जितनी अज्ञानता होती है, उसकी परवर्ती अवस्थाओं में उतनी अज्ञानता नहीं रहती। फिर भी ये सात भूमिकाएं अज्ञानावस्था की ही कही जाती हैं. क्योंकि भले-बुरे का ज्ञान उनमें नहीं हो पाता। विकसित अवस्था-इस अवस्था में पहले की अपेक्षा विवेक-शक्ति की उपस्थिति के कारण साधक का मन आत्मा के वास्तविक रूप को पहचानने के लिए उत्सुक रहता है, जिससे कि वह बुरे विचारों को त्याग कर आत्मा के समीप ले जानेवाले प्रशस्त विचारों को लगन के साथ ग्रहण कर सके । इस संदर्भ में आत्मा को बोध देनेवाली ज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख हआ है, जो क्रमशः स्थल आलम्बन से हटाकर साधक को सूक्ष्म की ओर ले जाती हैं; जहाँ मोक्ष की स्थिति है। यद्यपि मोक्ष और सत्य का ज्ञान दोनों पर्यायवाची हैं, क्योंकि जिसको सत्य का ज्ञान हो जाता है, वह जीव फिर जन्म नहीं लेता।। योगस्थित ज्ञान की सात भूमिकाएँ। इस प्रकार हैं (१) शुभेच्छा-वैराग्य उत्पन्न होने पर साधक के मन में अज्ञान को दूर करने और शास्त्र एवं सज्जनों की सहायता से सत्य को प्राप्त करने की इच्छा का उत्पन्न होना। (२) विचारणा-शास्त्राध्ययन, सत्संग, वैराग्य और अभ्यास से सदाचार की प्रवृत्ति पैदा होना। (३) तनुमानसा-शुभेच्छा और विचारणा के अभ्यास से इंद्रियविषयों के प्रति असक्तता होने से मन की स्थूलता का ह्रास होना। (४) सत्वापत्ति-पूर्वोक्त तीनों भूमिकाओं के अभ्यास और विषयों की विरक्ति से आत्मा में चित्त की स्थिरता प्राप्त होना। १. ज्ञानभूमिः शुभेच्छास्या प्रथमा समुदाहृता । विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा ॥ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्ति नामिका । पदार्थ-भावनी षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ -योगवासिष्ठ, उत्पत्तिप्रकरण, ११८५-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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