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________________ .१६२ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन तथा इन्द्रिय-विजय आवश्यक है, क्योंकि ध्यान की सिद्धि के लिए योगी को अपने चित्त का दुर्ध्यान, वचन का असंयम एवं काया की चपलता का निरोध करना चाहिए और अपने समस्त दोषों से रहित होकर चित्त स्थिर करना चाहिए। सद्गुरु, सम्यक् श्रद्धान, निरन्तर अभ्यास तथा मनःस्थिरता का भी ध्यान की सिद्धि के कारण के रूप में उल्लेख है। बैराग्य, तत्त्वविज्ञानं, निग्रंथता, समचित्तता, परीषहजय,' असंगता, स्थिरचित्तता, उर्मिस्मय, सहनता आदि का उल्लेख भी उसी संदर्भ में मिलता है। इनके अतिरिक्त पूरण, कुम्भक, रेचन, दहन, प्लवन, मुद्रा, मंत्र, मण्डल, धारणा, कर्माधिष्ठाता, देवों का संस्थान, लिंग, आसन, प्रमाण, वाहन आदि-जो कुछ भी शान्त तथा क्रर कर्म के लिए मंत्रवाद आदि के कथन हैं, वे भी सभी ध्यान की सामग्रियों के अन्तर्गत ही हैं। संक्षेप में, आचारमीमांसा की ही सारी बातें ध्यान की सामग्रियों के अन्तर्गत स्वीकृत हैं। वस्तुतः ध्यान, व्रत, जप, आदि सभी आचार बिना निर्मल चित्त के करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि मन को शुद्धि ही यथार्थ शुद्धि है। १. संगत्यागः कषायाणां निग्रहो व्रतधारणम् । मनोऽक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मने ॥ - वही, ७५ २. निरुन्ध्याच्चित्तदुनिं निरन्ध्यादयतं वचः । निरुन्ध्यात् कायचापल्यं, तत्त्वतल्लीनमानसः ।। -योगसार, १६३ ३. मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठणि?अट्ठ सु । थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ।। -बृहद्रव्य संग्रह, ४८ ४. ध्यानस्य च पुनर्मुख्यो हेतुरेतच्चतुष्टयम् । गुरूपदेशः श्रद्धानं सदाभ्यास: स्थिरं मनः ॥ -तत्त्वानुशासन, २१८ ५. वैराग्यं तस्वविज्ञानं नर्ग्रन्थ्यं समचित्तता । परीषह-जयश्चेति पंचैते ध्यानहेतवः ॥ - बृहद्रव्यसंग्रह, पृ० २०७ पर उद्धृत ६. उपासकाध्ययन, ३९६६३४ ७. तत्त्वानुशासन, २१३-२१६ ८. किं व्रतैः किं व्रताचारैः किं तपोभिर्जपश्च किम् ।। किं ध्यानैः किं तथा ध्येयैर्न चित्तं यदि भास्वरम् ॥ -योगसार, ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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