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________________ १५४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है कि अपने इष्ट, मंत्र, प्राण का हृदय में ध्यान करते हुए उसे ललाट में निबद्ध करना चाहिए ( मन का प्राणभूत होने के कारण प्राण ही मंत्र पद का वाच्य है। ऐसी स्थिति में प्राण का संचरण अर्थात् श्वास-प्रश्वास नहीं रहता। धारणा का फल वज्रसत्व में समाविष्ट है, अतः इसके प्रभाव से स्थिरीभूतं महारत्न अर्थात् प्राणवायु नाभिचक्र से चांडाली ( कुण्डलिनी ) शक्ति को उठाता है तथा इसकी सिद्धि होने पर चांडाली (कुण्डलिनी) शक्ति स्वभावतः उज्ज्वल हो जाती है।' जैन-योग के अनुसार भी योग-साधना के लिए धारणा की भूमिका आवश्यक है। ज्ञानार्णव के अनुसार इंद्रियों के विषयों को रोककर और रागद्वेष को दूर कर एवं समताभाव का अवलम्बन कर मन को ललाटदेश में संलीन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से समाधि की सिद्धि होती है। योगशास्त्र के अनुसार चित्त को स्थिर करना ही धारणा है और नाभि, हृदय नासिका का अग्रभाग, कपाल, भृकुटि, तालु, नेत्र, मुख, कान और मस्तक ये धारणा के स्थान हैं अर्थात् इन स्थानों में से किसी भी एक स्थान पर चित्त को स्थिर करना धारणा के लिए आवश्यक है। निष्कर्ष यह है कि चित्त को किसी एक ध्येय पर एकाग्र करना ही धारणा है। और योग-साधना की दृष्टि से यह आवश्यक तत्त्व है, क्योंकि बिना इसके समाधि की पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। १. बौद्धधर्मदर्शन (भूमिका), पृ० ३८-३९ २. निरुद्धध करणग्रामं समत्वमवलम्ब्य च । ललाटदेशसंलीनं विदध्यानिश्चलं मनः ।।-शानार्णव, २७।१२ ३. नाभी-हृदय-नासाग्र-भाल-भ्रू-तालु-दृष्टयः। मुखं कर्णी शिरश्चेति ध्यानस्थानान्यकीर्तयन् ॥-योगशास्त्र, ६७ ४. चित्तस्यधारणादेशे प्रत्ययस्यैकतानता । द्वात्रिंशिका, २४।१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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