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________________ योग के साधन : आचार १३३ तथा ज्ञानीजनों की पूजा-सेवा करने की प्रवृत्ति का होना और वाणी विषयक तप के अन्तर्गत स्वाध्याय, अकषायी तथा सुभाषी होना आवश्यक है। तथा मानसिक प्रसन्नता, भगवद्-चिंतन, शांति, मनोनिग्रह, पवित्रता को मानसिक तप कहा गया है । वहीं पर आगे तप के सात्विक, राजसिक तथा तामसिक तीन भेद निरूपित हैं, जो साधकों के स्वभाव के द्योतक हैं। अहिंसा, सत्य तथा ब्रह्मचर्य का निष्कामभाव से पालन करना सात्विक तप है। मान, प्रतिष्ठा या अन्य प्रलोभनवश तप करना राजसिक तप है तथा अपने को तथा दूसरों को भी तप द्वारा पीडा पहुँचाना तामसिक तप है। इस तरह गीता में तप के विभिन्न अंगों का विवेचन करते हुए सात्विक तप को ही श्रेष्ठ तथा आत्मशुद्धि का श्रेष्ठ साधन कहा गया है। __ योग-दर्शन में तप की महत्ता में कहा है कि तप से शरीर तथा इंद्रियों की शुद्धि एवं सिद्धि होती है। वैदिक योग में तप के अनेक प्रकार एवं विधियाँ बतलायी गयी हैं । चांद्रायण, कृच्छादि तप, सूर्याग्नि तथा जल में खड़े होकर तप करना आदि सभी तपों का उद्देश्य एक ही है कि शरीर का दमन किया जाय, परन्तु शरीर-दमन के साथ ही साथ इन्द्रियविषयों को जीर्ण कराने का भी भाव उसमें निहित है। बौद्ध-परम्परा में तप बौद्ध-परम्परा के अनुसार चित्तशुद्धि का सतत प्रयत्न करना ही तप का उद्देश्य है। ब्रह्मचर्य, चार आर्यसत्यों का दर्शन और निर्वाण के साक्षात्कार के साथ तप को भी उत्तम मंगल कहा गया है, क्योंकि आत्मा की अकुशल चित्तवृत्तियाँ अथवा पापवासनाएँ तप से क्षीण होती हैं। यही कारण है कि बौद्ध आगमिक साहित्य में तपस्या का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है।" बुद्ध ने भो प्रारम्भ में शरीरदमन के लिए तप १. वही, १७।१७-१९ २. कायेंद्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः। -योगदर्शन, २१४३ ३. तपो च ब्रह्मचरियं च, अरियसच्चान दस्सनं । निबाणं सच्छिकिरिया च एतं मंगलमुत्तमं ॥-महामंगलसुत्त, १० ४. बुद्धलीलासारसंग्रह, पृ० २८०-८१ ५. दीघनिकाय, ३२; मज्झिमनिकाय, १।२।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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