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________________ १२४ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन में समर्थ हो सके । इस दृष्टि से जैन-योग में श्रावकाचार तथा साध्वाचार के निमित्त विभिन्न आचार - नियमों का प्ररूपण हुआ है । वस्तुतः इन आचार-नियमों के द्वारा जीव में संयम की वृद्धि होती है, जिसे चारित्र कहा जाता है; और कर्मों का आस्रव रुकता है अर्थात् संवर की प्राप्ति होती है । परन्तु साधक की इन्द्रियाँ तथा मन साधक को सर्वदा अपने मार्ग से विचलित करने एवं रागद्वेषादि भावों को बढ़ाने के लिए तत्पर रहते हैं । इसलिए इन पर विजय प्राप्त करने के लिए अनुप्रेक्षाओं का विधान है, जिनके द्वारा चंचल प्रवृत्तियों का संयमन तथा आत्मविकास होता है । अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य की जननी भी कहा है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है गहन चिंतन, क्योंकि आत्मा का विशुद्ध चिंतन होने के कारण इनमें सांसारिक वासना-विकारों का कोई स्थान नहीं रहता और साधक विकास करता हुआ मोक्षाधिकारी होने में समर्थ होता है । अनुप्रेक्षा से कर्मो का बंधन शिथिल होता है । 3 जब जीव में शुभ विचारों का उदय होता है, तब अशुभ विचारों का आना क्रमशः बंद होता जाता है । अत: अनुप्रेक्षाएँ कर्म-निरोध की साधना भी हैं । साधक को धर्म-प्रेम, वैराग्य, चारित्र की दृढ़ता तथा कषायों के शमन के लिए इनका अनुचितन करते रहना चाहिए, क्योंकि जिसकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध होती है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।" इस -बात का समर्थन योग दर्शन में भी प्राप्त होता है। इसके अनुसार भावना अर्थात् अनुप्रेक्षा तथा जीव में बहुत गहरा संबंध है और भावनाओं का चितवन करने से आत्मशुद्धि होती है । इसलिए ईश्वर का बार-बार जप करने का विधान है । कहा गया है कि जप के बाद ईश्वर-भावना करनी ४ १. आस्रवनिरोधः संवरः । - तत्त्वार्थसूत्र, ९।१ २. वैराग्य उपावन माई, चितो अनुप्रेक्षा भाई | छहढाला, ५।१ ३. उत्तराध्ययन, २९।२२ ४. ताश्च संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्धये । आलानिता मनः स्तम्भे मुनिभिर्मोक्षमिच्छुभिः || - ज्ञानार्णव, २२६ ५. भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सम्वदुक्खा तिउट्टइ ॥ - सूत्रकृतांग, १।१५।५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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