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________________ जैन योग का मालोचनात्मक अध्ययन (अ) गुप्तियाँ गुप्ति का लक्षण-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक त्रियोग ( मन, वचन, काय ) को अपने अपने मार्ग में स्थापित करना गुप्ति है। वस्तुतः मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति सर्वदा राग-द्वेष की ओर रहती है। साधु अपनी साधना द्वारा मन-वचन-काय को शुभ प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करता है । तथा कषायरूपी वासनाओं से रक्षा के लिए गुप्ति रूपी अस्त्र का प्रयोग करना काहिए।' गुप्ति के भेद-गुप्तियाँ तीन हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। (१) मनोगुप्ति-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन को रोकना मनोगुप्ति है। दूसरे शब्दों में रागद्वेष आदि कषायों से मन को निवृत्त करना मनोगुप्ति है। इसके चार भेद हैं:-सत्या, मृषा, सत्यामृषा एवं असत्यामृषा । सत्य चिंतन करना सत्या मनोगुप्ति है और असत्य चिन्तन करना मृषामनोगुप्ति है। सत्य असत्य का मिश्रित चिंतन सत्यामषा मनोगुप्ति तथा केवल लोक-व्यवहार देखना (न सच न झूठ) असत्या मृषा मनोगुप्ति है। (२) बचनगुप्ति-असत्य भाषणादि से निवृत्त होना या मौन धारण - १. (क) वाक्कायचित्तजानेकसावधप्रतिषेधकं । त्रियोगरोधकं वा स्याद्यत्तद्गुप्तित्रयं मतम् ।।-ज्ञानार्णव, १८१४; (ख) सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकत्रित्रियोगस्य शास्त्रोक्त विधिना स्वाधीनमार्गव्यवस्थापन रूपत्वं गुति सामान्यस्य लक्षणम् । -आईत्दर्शनदीपिका, ५।६४२ २. सद्धं नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं ।। - खन्ति निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ -उत्तराध्ययन, ९।२० ३. (क) वही, २४।२१ (ख) जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति । -मूलाराधना, ६।११८७ ४. सच्चा तहेव मोसा य, साच्चमोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा, मणगुत्ती चउविहा ।।- उत्तराध्ययन, २४॥२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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