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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन जिनको टालकर मन, वचन, एवं कायपूर्वक स्वदारसन्तोषव्रत का पालन करना चाहिए। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं'-(१) इत्वरपरिगृहीतागमन अर्थात् रुपये देकर किसी दूसरे के द्वारा स्वीकृत स्त्री या वेश्या के साथ अमुक समय तक गमन करना, (२) अपरिगृहीतागमन अर्थात् वेश्या, कुलटा, वियोगिनी आदि का उपभोग करना, (३) अनंगक्रीड़ा अर्थात् सृष्टि विरुद्ध या अस्वाभाविक कामसेवन, (४) परविवाहकरण अर्थात् कन्यादान के फल की भावना से दूसरों की संतति का ब्याह करवाना, एवं (५) तीव्र कामभोगाभिलाषा अर्थात् बारबार विविध प्रकार से कामक्रीड़ा करना। इन अतिचारों के प्रति श्रावक के साथ-साथ श्राविका को भी सावधानी रखनी चाहिए। श्राविका को भी चाहिए कि स्वपति संतोष रूप, स्थूलमैथुनविरमणव्रत का पालन करे और किसी भी दूसरे पुरुष के साथ वैषयिक सम्बन्ध न रखे। ५. इच्छा-परिमाण व्रत . इसे अपरिग्रहाणुव्रत या परिग्रह-परिमाणवत भी कहते हैं । इच्छाएँ अनन्त हैं और मनुष्य इच्छाओं के अनुरूप अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाते-बढ़ाते उनके पीछे ही दुःख, दारिद्रय आदि संकटों में फंस जाता है। यह व्रत इस तथ्य का द्योतक है कि श्रावक देश, काल, परिस्थिति एवं सामर्थ्य के अनुसार अपनी आवश्यकताओं को परिमित करे और किसी वस्तु के प्रति मूर्छा अथवा ममत्व न रखे । क्योंकि मूर्छा ही परिग्रह है, और धन-धान्यादि के संग्रह से ममत्व घटाना अथवा लोभ कषाय को कम करके संतोषपूर्वक वस्तुओं का आवश्यकता भर उपयोग करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस प्रकार श्रावक को अपनी इच्छाओं की मर्यादा अवश्य बाँध लेनी चाहिए । आवश्यकतानुसार वस्तुओं को १. (क) इत्वरात्तागमोऽनातागतिरन्य -विवाहनम् । मदनात्याग्रहोऽनंगक्रीडा च ब्रह्मणि स्मृताः ॥ -योगशास्त्र, ३१९३ (ख) परविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडातीत्र कामाभिनिवेशाः। -तत्त्वार्थसूत्र, ७।२३ २. मूर्छा परिग्रहः । -तत्त्वार्थसूत्र, ७/१२ ३. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३९-३४० Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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