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________________ भूमिका : १४५ आचार्य मेरुतुङ्ग ने इन दार्शनिक उपमाओं में भी अन्य उपमाओं की भाँति विचित्र प्रकार से सजीवता सन्निविष्ट कर दी है। जैनमेघदूतम् में उपमा अलङ्कार के अन्य अनेक प्रयोग' मिलते हैं । इन प्रयोगों के आधार पर कहा जा सकता है कि उपमा- निरूपण में आचार्य मेरुतुङ्ग अत्यन्त निपुण हैं । उत्प्रेक्षा : उपमा अलङ्कार की भाँति उत्प्रेक्षा अलङ्कार भी काव्य को अत्यन्त रमणीयता प्रदान करता है । आचार्य मम्मट ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि प्रकृत अर्थात् वर्ण्य उपमेय की सम अर्थात् उपमान के साथ सम्भावना उत्प्रेक्षा कहलाती है-सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । " आचार्य मेरुतुङ्ग ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार का प्रभूत प्रयोग किया है। जैनमेघदूतम् के प्रत्येक सर्ग में उत्प्रेक्षा अलङ्कार के प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जो अत्यन्त उच्चकोटिक भी हैं । यथा श्रीमान वंशो हरिरिति परां ख्यातिमापत्तिौ यस्तस्मिन् मूर्त्ता इव दश दिशां नायका ये दशार्हाः ॥ ३ यहाँ पर दिशां नायकाः इव अर्थात् दिशाओं के स्वामियों के समान जो दशाह हैं वैसे श्रीसमुद्र में उत्प्रेक्षा अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है । विश्वाधीशं प्रति रतिपतेरभ्यमित्रीणतस्तं प्रादुर्भूतः सुरभिरभितः किं नु नासीरवीरः ॥ यहाँ रतिपतेरम्यमित्रीण इव अर्थात् काम के सेनानी के समान समस्त विश्व में व्याप्त वसन्त ऋतु में उत्प्रेक्षा अलङ्कार परिलक्षित हो रहा है | इसी प्रकार निम्न श्लोक में भी कितनी सुन्दर उत्प्रेक्षा प्रस्तुत की गई हैहा ! त्रैलोक्यप्रभुनयनयोः स्पर्धनादेनसां नौ वृत्ते पात्रं प्ररुदित इतीवानुतप्ते सशब्दम् ॥" १. जैनमेघदूतम्, १/८, ९, २०, २१, २४, २९, ३०, ३१,३२,३७,४३,४८, २/४, २५, २६,२७,३७,३८,३९,४०,४२,४३,४९, ३ / १६,३६,३७, ,४३,४५,४८, ४९,५५; ४/१,५,६,११, १२, १५, २०, २९, ४१ । २. काव्यप्रकाश, १० / ९२ । ३. जैनमेघदूतम्, १/१४ (पूर्वार्ध) | ४. वही, २ / १ ( उत्तरार्धं ) । ५. वही, ३ / १ ( उत्तरार्ध) | १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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