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________________ १८ ] नेमिदूतम् को, परिहरन्-छोड़ता हुआ, धुलोकात्-स्वर्गलोक से, पारिजातम्-पारिजात पुष्प के वृक्ष को, अनयत्-लाया, युवजनोन्मादि-युवाओं को उन्मादित करने वाली, द्वारिकायाः-द्वारिका की, चारु:-मनोहर, तद्-उस, उद्यानम्बगीचे को, त्यक्त्वा -छोड़कर, अत्र-यहाँ, नगवने-पर्वतीय वन में, तवतुम्हारा ( नेमि का ), का-कौन, प्रीति:-आनन्द । ___ अर्थः - हे नाथ ! जिस द्वारिका के उद्यान में, भगवान् कृष्ण ने देवोंसहित इन्द्र को युद्ध में पराजित करके, गगन मार्ग में दिग्गजों के लम्बे-लम्बे सूड़ों के आक्रमण से बचते हुए, स्वर्गलोक से पारिजात पुष्प के वृक्ष को लगाया, इस प्रकार की, युवाओं को उन्मादित करने वाली द्वारिका की मनोहर उस उद्यान को छोड़कर, इस पर्वतीय वन में क्यों प्रीति है, अर्थात् किस आनन्द के निमित्त तुम पर्वतीय वन का सेवन कर रहे हो। टिप्पणी- दिङ्नागानाम्-दिशां नागाः षष्ठी तत्पुरुष समास, स्थूलहस्तावलेपान् - स्थूलश्च ते हस्ताः षष्ठी तत्पुरुष समास, परिहरन्-परि+ हृ ( धातु से वर्तमानकालिक लट् लकार के स्थान में ) + शतृ ( आदेश करके )। यत्प्रागासीदमलविलसद्भूषणाभाभिरामं, भात्यारोहनवधनजलोदिभन्नवल्लीचयेन । तत्ते नीलोपलतटविभाभिन्नभासाऽधुनाङ्ग, बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ॥ १५ ॥ अन्वयः - ( हे नाथ ! ) अमलविलसद्भूषणाभिरामम्, ते अङ्गम्, यत्, प्राग, आसीत्, अधुना, तत्, सा-भा, आरोहन्नवधनजलोद्भिन्नवल्लीचयेन, नीलोपलतटविभाभिन्न, स्फुरितरुचिना, बहेण, गोपवेषस्य, विष्णोः, इव भाति। यत्प्रागेति । अमलविलसद्भूषणाभिरामं हे नाथ ! निर्मलभास्यदलंकारमनोहरम् । ते अङ्ग यत् तव शरीरस्य या कान्तिः, प्राग् गृहनिवासकाले आसीत् । अधुना तत्साभा आरोहन्नवधनजलोद्भिन्न सम्प्रति सा कान्ति: उर्ध्वमाक्रामन्नूतनमेघपानीयप्ररूढः । वल्लीचयेन नीलोपलतटविभाभिन्नः वीरुलतासमूहेन नीलमणयस्तै विभूषितं यत्तटं तस्य विभा-कान्तिस्तया भिन्ना आश्लिष्टा भा यस्य तेन इत्यर्थः । स्फुरितरु चिना धवलकान्तिना, बहेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002117
Book TitleNemidutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikram Kavi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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