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________________ लेखकीय ― सभी शास्त्रों का मुख्य प्रयोजन है प्रवृत्ति - निवृत्ति का उपदेश देकर 'पुरुषार्थं चतुष्टय' की प्राप्ति कराना, चाहे दर्शनशास्त्र हो या व्याकरणशास्त्र अथवा काव्यशास्त्र | हाँ, उनके मार्ग भिन्न अवश्य हैं । शास्त्र और काव्य को एक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस भूलोक के एकमात्र मननशील मानव ने जहाँ एक ओर 'कुतः स्मः जाताः कुतः इयं विसृष्टि:' इस जिज्ञासा द्वारा अपनी मूल प्रकृति के आधारभूत रहस्यों को समझने का उपक्रम किया, वहीं दूसरी ओर अपनी आदि जननी प्रकृति के नाना उपकारों से गद्गद होकर उसने हृदय के विमल उच्छ्वासों को मार्मिक वाणी में परिणत कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की । प्रथम प्रकार के साहित्य को हम दर्शन, विज्ञान, शास्त्र आदि कहते हैं, तो दूसरे प्रकार के साहित्य को काव्य । शास्त्र की अपेक्षा काव्य का मार्ग सरस है, जिसका अनुसरण करना सर्वजन के लिए सम्भव है, इसका कारण है उस ( काव्य ) की सरसता । काव्य की इसी सरसता को ध्यान में रखकर साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने कहा है चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ॥ इस अपार काव्य जगत् का स्रष्टा कवि है, उस कवि प्रजापति को जैसा रुचता है वैसा ही अपनी रुचि के अनुसार काव्य-जगत् की रचना करता है । इस परम्परा में 'विक्रमकवि' की कृति 'नेमिदूतम्' के इस प्रथम संस्करण को अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है, तो साथ ही भयभीत भी हूँ, क्योंकि - अर्वाग्दुष्टतया लोको यथेच्छं वाञ्छति प्रियम् । भाग्यापेक्षी विधिर्दत्ते तेन चिन्तितमन्यथा ॥ Jain Education International वस्तुतः काव्य के भावों की अभिव्यक्ति अति दुष्कर है, जो गुरुजनों की श्रद्धा प्राप्ति किये बिना सम्भव ही नहीं । इस कार्य के पूर्ण होने में अपने गुरुजनों के साथ-साथ परम श्रद्धेय गुरुवर डॉ० सागरमल जैन जी ( निदेशक, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी) तथा डॉ० अशोक कुमार सिंह जी ( शोधअधिकारी, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी ) के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002117
Book TitleNemidutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikram Kavi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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