SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका [ ३७ मे अपने एक लेख में किया, परन्तु वे इसे जैन कवि की कृति होने में सन्देह भी करते हैं। फिर भी विद्वद्रत्नमाला के उल्लेखानुसार इस कृति को जैन संस्कृत दुतकाव्यों में मिला लिया गया है। शेष जानकरी नहीं हो सकी है। इस प्रकार जैन संस्कृत दुतकाव्यों की परम्परा को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ जैनेतर संस्कृत दूतकाव्यों में विप्रलम्भ शृङ्गार की प्रधानता है, वहीं जैन कवियों की कृतियों की परिणति शान्त रस में है। नेमिवत का कथासार 'नेमिदूत' की कथावस्तु जैनों के २२ वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ से सम्बन्धित है। द्वारिका के यदुवंशी राजा श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भाई समुद्रविजय थे। नेमिनाथ समुद्रविजय के ज्येष्ठ पुत्र थे। बाल्यावस्था से ही ये विषयपराङ्मुख थे। बारातियों के भोजन के निमित्त बँधे बकरे आदि के आर्तनाद को सुनकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है तथा वे वहीं से सांसारिक-बन्धनों को तोड़कर रामगिरि पर केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए समाधिस्थ हो जाते ___राजीमती इस समाचार को सुनकर दुःखी हो पिता की आज्ञा लेकर नेमि का अनुसरण करती हुई वहाँ पहुँचती है । राजीमती की सखी नेमि से विरहावस्था का वर्णन करते हुए उन्हें द्वारिका लौट चलने की प्रार्थना करती है; किन्तु नेमि अपने मार्ग से विचलित नहीं होते हैं और अन्त में राजीमती को भी दीक्षा देकर नेमिनाथ और राजीमती तपश्चर्या में संलग्न हो जाते हैं। कविका परिचय 'विक्रम' कवि का समय क्या था, ये किस वंश और सम्प्रदाय के थे इस विषय को जानने के लिए अद्यावधि कोई ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है जिससे इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहा जा सके । 'नेमिदूत' का अन्तिम श्लोक ही इसका एकमात्र उपलब्ध प्रमाण है जिसके आधार पर 'नेमिदूत' को 'विक्रम' कवि की कृति के रूप में स्मरण किया जाता है । श्लोक इस प्रकार है - सद्भतार्थप्रवरकविना कालिदासेन काव्या दन्त्यं पादं सुपदरचितान्मेघदूताद् गृहीत्वा । भीमन्ने मेश्चरितविशदं साङ्गणस्याङ्गजन्मा, चक्रे काव्यं बुधजनमनः प्रीतये विक्रमाख्यः ।। १२६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002117
Book TitleNemidutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikram Kavi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy