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________________ गाथासप्तशती स्थान से परिच्युत होकर अन्यत्र सन्निविष्ट वर्गों का समुचित स्थान पर संस्थापन अनिवार्य था। अब आगे गाथाओं का अर्थनिरूपण प्रस्तुत है। प्रत्येक गाथा के दक्षिण पार्श्व में चौखम्बा-संस्करणानुसार गाथांक दे दिया गया है। नीचे उसकी सदोष व्याख्या और टिप्पणी उद्धृत है । १. एत्तीमत्तम्मि थवा पुत्तीमत्तम्मि लअणा भत्तो। - अगईअ अवत्थाए दिअहाई भित्तरं तरइ ॥ ७०८॥ "अर्थअस्पष्ट" प्रस्तुत गाथा का पाठ छन्द और व्याकरण की दृष्टि से भ्रष्ट है। द्वितीय पाद में एक मात्रा कम है। यदि लअणा के आदि में ख और जोड़ दिया जाये तो एक मात्रा की पूर्ति के साथ-साथ सार्थक पद 'खलअणा' (खलजनाः ) बन जायेगा। इस बहुवचनान्त पद को एक वचन में 'खलअणो' पढ़ें तो पादान्त में अवस्थित ‘भत्तो' और छन्द के अन्त में प्रयुक्त 'तरइ' क्रिया से अन्वय संभव हो जायेगा। प्रथम पाद के प्रारम्भ में 'एत्तीमत्तम्मि' पाठ है और द्वितीय पाद के प्रारम्भ में पुत्तीमत्तम्मि । गाथा की भंगिमा को देखते हुये दोनों स्थलों पर एक ही पद उचित प्रतीत होता है। हम अर्थानुरोध से पुत्तीमत्तम्मि को मुत्तीमत्तम्मि पढ़ते हैं क्योंकि लिपि-दोष से मु का पु हो जाना सर्वथा स्वाभाविक है । एत्तीमत्तम्मि के सम्बन्ध में भी वही बात है। ए का उपरितन भाग तो म के समान है ही, अधस्तन भाग भी उकार की मात्रा-विकृति का परिणाम है। अतएव उभयत्र मुत्तीमत्तम्मि पाठ स्वीकार्य है । थवो को थवा भी पढ़ना संभव है । इससे अर्थावगति बाधित नहीं होगी। अब सम्पूर्ण गाथा की निम्नलिखित सार्थक आकृति बनती है मुत्तीमत्तम्मि थवो मुत्तीमत्तम्मि खलअणो भत्तो। अगईअ अवस्थाए दिअहाई भित्तरं तरइ ॥ इसकी संस्कृतच्छाया यों होगीमुक्तिमात्रे स्तवो मुक्तिमात्रे खलजनो भक्तः। अगत्या अवस्थाया दिवसानभ्यन्तरं तरति ॥ गाथा में मोक्ष के अभिलाषुक किसी ऐसे तरुण का वर्णन है जो सतत स्तोत्र का पाठ करता रहता है और अपने प्रति प्रणयोच्छ्वसित कामिनी की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता। वह तरुणी परोक्ष मोक्ष के लिये उपस्थित प्रत्यक्ष विषय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org: Jain Education International
SR No.002116
Book TitleGathasaptashati
Original Sutra AuthorMahakavihal
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size9 MB
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