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________________ २२८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन केशसज्जा: भारत में प्राचीनकाल से ही केश-विन्यास की विभिन्न शैलियाँ प्रचलित रही हैं। प्राचीन प्रस्तर एवं मुमतियों तथा चित्रों में केशविन्यास की विविध शैलियों के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। हमारा संस्कृत साहित्य भी केश सज्जा की विभिन्न शैलियों के विस्तृत विवरण की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। भारतीय जीवन में धर्म की महत्ता के फलस्वरूप विभिन्न धार्मिक यज्ञों एवं संस्कारों के अवसर पर केश-सज्जा की अलग-अलग शैलियों का प्रचलन था। साहित्य में हमें केशों को साजसंवार कर रखने का विस्तृत वर्णन भी प्राप्त होता है । केशों को अलंकृत करने के लिये आभूषणों के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न ऋतुओं में अलग-अलग पुष्पों का प्रयोग किया जाता था जिसकी चर्चा आदिपुराण में भी मिलती है । केश-सज्जा में आभूषणों के बाद पुष्पों का सर्वाधिक महत्व था ।१४५ आज भी दक्षिण भारत में केश-सज्जा में पुष्पों का प्रयोग विशेष रूप से देखा जा सकता है। ___जैन पुराणों में स्त्री-पुरुषों की केश-सज्जा के विस्तृत उल्लेख मिलते हैं। पुराणों में केशों के लिये कुन्तल, केश, अलक तथा कबरी आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है । केश को सुगन्धित जल से धोने के बाद धूप आदि सुवासित सामग्री से सुखाया जाता था। सूखने के पश्चात् केशों में कंघी की जाती थी यथा उन्हें वेणी अथवा जूड़े के रूप में बाँधकर विभिन्न प्रकार के पुष्प आदि द्वारा सुसज्जित किया जाता था। आदिपुराण में वसन्त ऋतु में चम्पा के पुष्पों तथा शरद ऋतु में नीलकमल युक्त भद्रतरणी के पुष्पों से गुम्फित माला से वेणी को अलंकृत करने का उल्लेख है । १८3 कालिदास के ग्रन्थों में भी भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्नभिन्न पुष्पों से केशों के शृंगार का सन्दर्भ मिलता है । १८४ केश प्रसाधन के लिये पुष्पमाला, विभिन्न प्रकार के पुष्प, पुष्पपराग, पल्लव, मंजरी आदि का प्रयोग भी किया जाता था । १८५ बहत्संहिता तथा कालिदासकृत कुमारसम्भव, मेघदूत एवं ऋतुसंहार में केशों की स्वच्छता के लिये प्रयुक्त अवलेप तथा सुवासित करने के लिए धुंए इत्यादि का विस्तार से वर्णन है । १८६ केशों को सुवासित करने के लिये सुगन्धित तेलों का भी प्रयोग किया जाता था। श्वेत केश सौन्दर्य वृद्धि में बाधक होते हैं। इसीलिये श्वेत केशों को रंगकर उन्हें काला बनाने की प्रथा भी प्राचीनकाल से ही भारत में प्रचलित थी। आदिपुराण में एक स्थान पर श्मश्रु को हरिद्रा से रंगने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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