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________________ ४२४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म करने के अतिरिक्त दूसरों को भी एतदर्थं प्रेरणा देते थे । हरिभद्र सूरि ने योगदृष्टिसमुच्चय में 'लेखना, पूजना, दानम्' द्वारा पुस्तक लेखन को योग भूमिका का अंग बतलाया है । १२वीं शताब्दी में सूराचार्य ने भी 'दानाधिप्रकाश' के पंचम अवसर में पुस्तक लेखन की महिमा गाई है । ग्रन्थों का प्रतिलिपिकरण श्रमसाध्य था, जो संत एवं संयमी विद्वान् ही कर सकते थे । अतः ग्रन्थ के अन्त में कभी-कभी उनकी सुरक्षार्थं निम्न शब्दों में पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया करते थे "भग्नपृष्ठ कटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत ॥" 3 जिनभद्र सूरि ने अपने जीवन का श्रेष्ठतम समय ज्ञान भण्डारों की स्थापना के निमित्त व्यतीत किया । जैन संतों के सुरक्षा के विशेष नियमों के कारण ग्रन्थों के विशाल संग्रह सुरक्षित रह सके। इन्होंने अनेक संकटों व झंझावातों के मध्य भी साहित्य की अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रखा । असंख्य ग्रन्थ भण्डार जैन संतों की साहित्य सेवा के ज्वलन्त प्रमाण हैं । इन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों एवं लेखकों की रचनाओं को भी निष्ठापूर्वक संग्रहीत किया। जिनचन्द्र सूरि ने १४४० ई० में बृहद् ज्ञानभण्डार की स्थापना करके साहित्य की सैकड़ों अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचाया । चैत्यवासियों, यतियों एवं भट्टारकों के ग्रामों एवं नगरों में स्थाई निवास से साहित्य सृजन व शास्त्र भण्डारों के कोष में अपूर्वं वृद्धि होने लगी । चातुर्मास के अस्थायी निवास के दौरान भी जैनाचार्य पुस्तक लेखन व प्रतिलिपिकरण को प्रोत्साहन देते थे । इस प्रकार की मनोवृत्ति ने छोटे-छोटे स्थानों पर भी ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना को प्रोत्साहित किया । यहाँ तक कि व्यक्तिगत रुचि जाग्रत करके आवासों पर भी पुस्तका - लय निर्माण की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने का श्रेय भी इन्हीं मुनियों को है । राजनयिकों द्वारा संरक्षण एवं योगदान Jain Education International राजस्थान के कई राजाओं, मंत्रियों एवं दीवानों ने परिष्कृत सांस्कृतिक अभिरुचि एवं धर्मनिरपेक्षता का परिचय देते हुए, अपने ही आध्यात्मिक कल्याण हेतु या स्वयं को आदर्श एवं समदर्शी प्रजापालक सिद्ध करने के लिये, या स्वजनों की प्रेरणा एवं प्रजा की प्रियदर्शिता प्राप्त करने के लिये भी कवियों एवं साहित्यकारों को सम्मान देकर साहित्य सृजन को परोक्ष प्रोत्साहन दिया । एतदर्थं इन्होंने प्राचीन मौलिक ग्रन्थ खरीदे, नये लिखवाये, पुरानों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई ताकि मुनियों को भेंट में दे सकें, एवं आत्मकल्याण हेतु स्वाध्याय भी कर सकें । ताराचन्द ने १७वीं शताब्दी में सादड़ी में जैन मुनि हेमरत्न से 'गोराबादल पद्मिनी चौपाई' की रचना करवाई थी । साहित्य के १. कासलीवाल, मुहंस्मृग, पृ० ७६३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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