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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : २१ सम्पन्न हुए उत्सव में रायपाल की उपस्थिति का वर्णन करता है, जिसके अनुसार राउल राजदेव ने उस समय अपनी माता के कल्याण तथा धर्म के निमित्त एक विंशोपक व दो पल्लिका तेल प्रदान किया तथा इस परम्परा को तोड़ने वाले को स्त्री हत्या व भ्रूण हत्या के पाप का भागी बताया। महाराजा रायपाल के ही शासनकाल के, ११४५ ई० के, नाडलाई के आदिनाथ मंदिर के शिलालेख में, ठाकुर रावत राजदेव के द्वारा महावीर चैत्य के साधुओं के निमित्त दान की व्यवस्था का उल्लेख है। किराडू के अभिलेख से पता चलता है कि सोलंकी कुमारपाल के सामंत, महाराजा आन्हलदेव ने ११५२ ई० में, अपने स्वामी के अनुग्रह से किरातकूप, लातरहद और शिवा गांव जागीर में प्राप्त किये। यह भी जैन धर्म के प्रति सहिष्णु था एवं अगाष श्रद्धा भी रखता था। एतदर्थ, उसने उक्त गांव में महाजनों तथा ताम्बूलिकों के सन्तोष तथा स्वयं के आध्यात्मिक उन्नयन के लिये, प्रतिमास अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी को पशु हिंसा का निषेध कर दिया था तथा इसका उल्लंघन कर, पशु वध करने या पशु हिंसा का कारण बनने वाले के लिये उसने गम्भीर दण्ड का प्रावधान घोषित कर दिया था। अहिंसा के इस आदेश का सम्मान और पालन करने के लिये ब्राह्मण, पुरोहित और मन्त्री भी प्रतिबद्ध थे। यदि इनमें से कोई अपराध करता है तो उसके ऊपर पांच द्रम का जुर्माना तथा यदि अपराधी राजा के निकट सम्पर्क का है तो उस पर एक द्रम जुर्माने का प्रावधान निश्चित किया गया था। अल्हण एवं केल्हण के नाडौल दान पत्र से विदित होता है कि उन्होंने राजपुत्र कीर्तिपाल को बारह गांव दिये थे तथा ११६० ई० में, नाडलाई में, सूर्य एवं माहेश्वर की आराधना कर, स्नानोपरान्त, कीर्तिपाल ने बारह गांवों में से प्रत्येक ग्राम की ओर से नाडलाई के महावीर मन्दिर हेतु, दो द्रम वार्षिक दान की घोषणा अंकित करवाई थी। ११७१ ई० के नाडोल अनुदान में विवरण मिलता है कि महाराजा अल्हणदेव ने, सूर्य एवं ईशान की पूजा करके तथा ब्राह्मण, गुरुओं को उपहार भेंट करके तदनन्तर, नागौर के संडेरक गच्छ के महावीर जैन मन्दिर को, नाडोल तलपट की शुल्क मंडपिका से पांच द्रम की राशि प्रतिमाह अनुदान के रूप में देने की घोषणा की थी। अल्हण के उत्तराधिकारी एवं पुत्र कल्हणदेव ने भी जैन धर्म के विकास में योगदान दिया था। सांडेराव के महावीर देवालय के ११६४ ई० के लेख से ज्ञात होता है कि कल्हणदेव की रानी आनल ने, मन्दिर के भोग के लिये एक हाएल का अनुदान दिया था।" ११६४ ई० का सांडेराव शिलालेख बताता १. एइ, ९, पृ०६३-६६ । २. एइ, ९, पृ० १५९ । ३. एइ, ११, पृ० ४३-४६ । ४. एइ, ९, पृ० ६६-७० । ५. नाजैलेस, भाग १, क्र० ८८३, पृ० २२९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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