SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ........ .. जैन कला : २८९ (२) मैन आकृतियों में कनपटियां चौड़ी, कान की लो बाहर निकली हुई, नाक लम्बी, सधी हुई, नुकीली और शुक चंचु के अनुरूप, आँखें गोल और बड़ी होती थीं। काजल की रेखा कानों तक खिची हुई तथा आंखें मुख की सीमा से बाहर निकली हुई होती थीं । होंठ पतले व एक दूसरे से चिपके हुए, मुख को रेखा दूर तक फैली हुई, कान लम्बे व छिद्रित, चिबुक दो भागों में विभक्त या गोल आम की गुठली के समान, कण्ठ में तीन रेखाएँ, कंधे चौड़े और उठे हुए, भ्रू-प्रदेश मिला हुआ, कटि क्षीण, जेघाएँ भारी पर पाँव नीचे से पतले होते हैं । केश कंधों तक झूलते हुए, ग्रीवा तक कटे या जूड़े के आकार में बँधे, जूड़ा कभी सिर के ऊपर व कभी पीछे, मुंळे बारीक, मुख की रेखा के पास, नीचे की ओर लटकी हुई, पुरुषों की दाढ़ी दो भागों में विभक्त, केशों में फूल और कभी मुंडे हुए सिर भी मिलते हैं। नारी सौन्दर्य में स्तन अत्यन्त पुष्ट, पट्टिका से बंधे हुये या कंचुकी, केशों के जूड़े बंधे हुए, अलकें कपोलों तक लहराती हुई, जिसमें काले कुन्दन लटकते रहते हैं । काले कुन्दन पाँवों, हाथों और वेणी में भी होते हैं । चिबुक का निचला भाग त्रिकोणाकार, भरा हुआ, गद्दीदार नाभि, पीपल के पत्ते के समान गम्भीर उदर, कटि क्षीण, मुख त्रिकोणीय, स्त्रियों के भ्र धनुष के समान और आँखें पटोलाक्ष होती हैं । हाथों की मुद्रा अंगुली निर्देशन या सिंहासन की पीठिका पर पल्लवाकार फैली होती है ।' ( ३ ) राजस्थानी लघु चित्रशैली का प्रारम्भ इन्हीं जैन चित्रों की परम्परा से होता है । जैन आकृतियों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किये जाने पर ज्ञात होता है कि वे ईरानियों और उत्तर पूर्व की बर्बर जातियों से अधिक मेल खाती हैं। इनकी कनपटियाँ मंगोलों जैसी, दाढ़ी-मूंछे तुर्की तातारों जैसी एवं कितने ही आलेखनों में वेशभूषा भी टर्की के अनुरूप ही देखने को मिलती है । (४) जैन चित्रों को संयोजन विधि सुदृढ़ एवं सम्पूर्ण है। रंगों का विभाजन, उनकी सामूहिक शक्ति व सापेक्ष सौन्दर्य दर्शनीय है। विषय वैविध्य की दृष्टि से संकीर्णता है । जैन चित्र अभिप्रायों की दृष्टि से सुन्दर हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक कलाकारों ने जैन चित्रों से प्रेरणा लेकर ही त्रिकोणवादी, अमूर्तवादी, संक्षेप आलेखन विधि आदि कितने ही प्रकार आधुनिक कला में विकसित किये हैं । रंगों की पृथक् सत्ता का सौन्दर्य स्वीकार करने की विद्या अन्य देशों में जैन चित्रों से ही संक्रमित हुई है । जैन चित्रों में शास्त्रीय व्याकरण की भी एक विशेषता है, जिसके मूल १. विजयवर्गीय रामगोपाल-रा० की जैन लघु चित्र शैली, लेख, पृ० ३५-४२ । २. वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy