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________________ ४ : मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म उपरान्त छोटे से लेख में इसका सन्दर्भ देने का उदाहरण भी है जैसे - विमल वसहि में पृथ्वीपाल के द्वारा ११४९ ई० में वृहत नवीनीकरण व परिवर्द्धन का उल्लेख एक पंक्ति के लेख में ही है । इसी प्रकार लूण वसहि के जीर्णोद्धार को पेथड़ कुमार द्वारा सम्पन्न करवाने का भी छोटा अभिलेख उपलब्ध होता है । मध्यकाल व उत्तर मध्यकाल में ऐसे लेखों में अपेक्षाकृत अधिक विवरण दिये जाने लगे थे । (ख) प्रतिमा लेख : प्रतिमाओं के शिलापट्ट या चरण चौकी पर उत्कीर्ण लेखों में प्रारम्भ में 'श्री' या 'ह्रीं' लिखा देखने को मिलता है । तिथि या तो इसके पश्चात् या सबसे अन्त में दी होती है । तदनन्तर, बहुत कम प्रतिमाओं में शासकों के नाम देखने को मिलते हैं, अन्यथा प्रतिमा स्थापक श्रेष्ठी परिवार का विवरण और उसके बाद प्रेरक जैनाचार्य का नाम गण, गच्छ, व कभी-कभी गुरु-शिष्य परम्परा सहित देखने को मिलता है । कुछ प्रतिमा लेखों में सूत्रधार का नामोल्लेख भी असामान्य नहीं है । धातु प्रतिमाओं में अभिलेख पृष्ठ भाग पर उत्कीर्णं देखने को मिलते हैं । कतिपय लेखों में स्थानाभाव के कारण श्रेष्ठी, व्यवहारी, वास्तव्य, उपकेश, गच्छ आदि शब्दों का संक्षिप्त रूप में प्रयोग भी देखने को मिलता है । (ग) अनुदान सम्बन्धी लेख : राजाओं, श्रेष्ठियों एवं श्रावकों द्वारा प्रदत्त अनुदान सम्बन्धी लेख लम्बी प्रशस्तियों व छोटे लेखों के रूप में उपलब्ध होते हैं । राज्य परिवार - प्रदत्त अनुदान " सुरह" कहे जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति "सुरभि " ( इच्छा पूर्ण करने वाली देवी गाय ) से हुई है । सुरह लेख के ऊपर सूर्य, चन्द्र तथा नीचे गाय व बछड़ा प्रतीकात्मक रूप में उत्कीर्ण मिलते हैं । सुरह लेख के प्रारम्भ या अन्त में तिथि, दानदाता या राजा का नाम, वंशवर्णन, अनुदान का उद्देश्य, लाभान्वित होने वालों का विवरण तथा अन्त में साक्षियों के नाम व अनुदान का उल्लंघन न करने की चेतावनी दो हुई होती है । अनुदान का उल्लेख सामान्यतः मन्दिर की दैनिक पूजा व्यवस्था, प्रबन्ध, रथयात्रा, अष्टाह्निका पर्व, कल्याणक पर्व, वार्षिक समारोह, धूप, तेल, दीप आदि की पूर्ति तथा तीर्थयात्रियों को करों से मुक्त करने सम्बन्धी देखने को मिलते हैं । अनुदान नकद या द्रव्य के रूप में होते थे । मंडपिका शुल्क का कुछ हिस्सा, वस्तुओं, पशुओं व व्यापारिक पदार्थों के आयात-निर्यात शुल्क का कुछ भाग निश्चित राशि या निश्चित राशि के ब्याज आदि अनुदान के विभिन्न स्वरूप लेखों में देखने को मिलते हैं । (घ) ऐतिहासिक लेख : जैन अभिलेखों का उद्देश्य ऐतिहासिक घटनाओं का अंकन करना नहीं होता था । किन्तु लेखन की परम्परा के मान्य सिद्धान्तों के अनुपालन १. अयं तीर्थं समुद्धारोअत्भुतो अकारि धीमता श्रीमदानंद पुत्रेण श्री पृथ्वीपाल मंत्रिणा " अ० जै० ले० सं०, क्र० ७२ । २ . वही, क्र० ३८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002114
Book TitleMadhyakalin Rajasthan me Jain Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajesh Jain Mrs
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1992
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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