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________________ ६६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अवस्तु रूप मानना पड़ेगा तथा इसी प्रकार घटादि एवं पटादिपदार्थ सर्वथा एक भी नहीं है । यदि एक हो जाएं तो उनमें “यह घट है"यह पट है” इत्यादि व्यावृत्त ज्ञान नहीं हो सकता । शान्तरक्षित ने स्याद्वादसिद्धान्त को पूर्वपक्ष में सविस्तार रखकर उसका निरसन किया है ।२८२ बहिरर्थवाद के प्रसंग में शान्तरक्षित ने दिगम्बर जैनाचार्य सुमति के मत का उपस्थापन कर उसका प्रतिविधान किया है। सुमतिदेव के अनुसार बाह्य पदार्थ है एवं वह सामान्यविशेषात्मक है,शान्तरक्षित ने समतिदेव के इस मत का खण्डन किया है२८३ । प्रमेयमीमांसा के साथ जैन प्रमाणमीमांसा भी शान्तरक्षित द्वारा परीक्षित हुई है। जिसमें सुमतिदेव द्वारा प्रस्तुत प्रत्यक्षप्रमाण तथा पात्रस्वामी कृत बौद्ध हेतुलक्षण का खण्डन प्रमुख है। सुमति ने प्रत्यक्ष का विषय सामान्यविशेषात्मक अर्थ माना है,जबकि शान्तरक्षित इसका खण्डन कर स्वलक्षण को प्रत्यक्ष विषय के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं ।२८४ पात्रस्वामी ने बौद्धों द्वारा प्रतिपादित विलक्षण हेतु का विस्तृत खण्डन किया है तथा अन्यथानुपपन्नत्व रूप हेतुलक्षण को प्रतिष्ठित किया है । शान्तरक्षित ने उसे भी पूर्वपक्ष में रखकर पात्रस्वामी के मत का निरसन किया जैन दार्शनिकों द्वारा बौद्धों की प्रमाणमीमांसा का खण्डन शान्तरक्षित के काल तक उतना नहीं किया गया था, जितना उनके उत्तरवर्ती काल में हुआ। शान्तरक्षित के पश्चात् ही अकलङ्क ने जैन प्रमाणमीमांसा का व्यवस्थित रूप प्रस्तुत किया एवं बौद्ध प्रमाणप्रमेयमीमांसा पर आक्षेप किया। अकलङ्कके पश्चात् प्रत्येक जैन दार्शनिक ने बौद्ध प्रमाण मीमांसा के खण्डनार्थ अपनी कलम चलायी है। उनमें प्रमुख हैं-विद्यानन्द , अनन्तवीर्य, सिद्धर्षिगणि , वादिराज , अभयदेवसूरि , प्रभाचन्द्र , वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्र । किन्तु इन दार्शनिकों द्वारा बौद्ध-प्रमाण मीमांसा का जो खण्डन प्रस्तुत किया गया उसका प्रत्युत्तर देने वाले बौद्ध दार्शनिक ग्रंथों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है । ज्ञानश्री मित्र एवं रत्नकीर्ति के ग्रंथ भी इस सन्दर्भ में महत्त्व नहीं रखते । इस प्रकार अकलङ्क से लेकर हेमचन्द्र तक अर्थात् आठवीं शती से लेकर बारहवीं शती तक जैन न्यायग्रंथों में बौद्धमत का खण्डन प्रबल रूपेण होता रहा, किन्तु बौद्धदार्शनिकों द्वारा उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया गया। यदि बौद्धों द्वारा इन ग्रंथों के तर्कों का प्रत्युत्तर दिया गया होता,तो संभव था न्याय एवं मीमांसा दर्शनों की भांति जैन दार्शनिक ग्रंथ भी अधिक समृद्ध हो गये होते । तथापि शान्तरक्षित तक बौद्ध न्याय अपने उन्नति के शिखर र था, अतः जैन दार्शनिकों द्वारा उसका खण्डन किया जाना जैन न्यायग्रंथों के प्रौढत्व का सूचक है। जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शन श्रमणसंस्कृति के परिचायक हैं,दोनों ने वैदिक परम्परा सम्मत प्रमाण २८२. तत्वसङ्ग्रह,१७०९-१७८४ २८३. तत्त्वसङ्ग्रह, १९७९-१९८५ २८४. तत्वसङ्ग्रह, १२६४-१२८३ २८५. तत्त्वसङ्ग्रह, १३६३-१४२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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