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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा विचार-विकास की दष्टि से तत्वबोधविधायिनी प्राचीन प्रतीत होती है। प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड में अनेकत्र तत्त्वबोधविधायिनी में प्रस्तुत विषय को ज्यों का त्यों लेकर यथाशक्य परिवर्धन किया गया है । न्यायकुमुदचन्द्र अधिक संशोधित एवं व्यवस्थित रचना है । उसका निर्माण प्रमेयकमलमार्तण्ड के अनन्तर हुआ है । पं० महेन्द्रकुमार जी ने यह तो स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि सन्मतितर्कटीका (तत्त्वबोधविधायिनी) के समय न्यायकमदचन्द्र की रचना नहीं हो सकी थी, किन्तु वे इस विषय में मौन हैं कि प्रमेयकमलमार्तण्ड व सन्मतितर्कटीका में किसकी रचना पहले हुई । दोनों में सादृश्य का कथन वे अवश्य करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के पूर्व तत्त्वबोधविधायिनी की रचना हो चुकी थी,क्योंकि प्रमेयकमलमार्तण्ड में तत्त्वबोधविधायिनी में उठाये गये विषयों का अधिक विशद,परिवर्द्धित एवं सुव्यवस्थित रूप में निरूपण हुआ है । अभयदेवसूरि अनावश्यक विस्तार में चले जाते हैं ,किन्तु प्रभाचन्द्र विषय से सम्बद्ध बात कहते हैं। दोनों में से किसी ने भी अपनी रचनाओं में एक दूसरे का उल्लेख नहीं किया है। इनके समकालीन होने में कोई बाधा नहीं है. किन्तु विचारविकास की दृष्टि से हमें अभयदेवसूरि की तत्वबोधविधायिनी प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड से प्राचीन प्रतीत होती है । इसलिए आगे के अध्यायों में प्रभाचन्द्र के पूर्व अभयदेवसूरि के विचार प्रकट किये गये हैं। ____अभयदेवसूरि ने सिद्धसेन के सम्मतितर्कप्रकरण पर तत्वबोधविधायिनी नामक जो टीका रची है वह सन्मतितर्कटीका अथवा वादमहार्णव के नाम से भी प्रसिद्ध है ।२५९ यह टीका संस्कृत गद्य में है और २५,००० श्लोक परिमाण है। इसमें मूल सन्मतितर्क के अनुरूप ही नय, ज्ञान एवं ज्ञेय की मीमांसा की गयी है, किन्तु अभयदेवसूरि ने तत्वबोधविधायिनी में दसवीं शताब्दी तक प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं को पूर्वपक्ष में रखकर उनका बलपूर्वक खण्डन किया है तथा जैन मंतव्यों को स्पष्ट किया है। अनेकत्र नई चर्चा का भी समावेश किया है, यथा, अपौरुषेयवाद, स्वतः प्रामाण्यवाद, शब्दनित्यत्ववाद,सर्वज्ञत्व का असम्भववाद आदि का निरसन एवं जैनदर्शन के सर्वज्ञ प्रणीत प्रामाण्य की सिद्धि नये विषय हैं । मूल सन्मतितर्क में प्रमाण की चर्चा नहीं मिलती, किन्तु अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में प्रमाण के स्वरूप, उसके भेद एवं विषय के सन्दर्भ में जैनेतर दर्शनों की विशिष्ट मान्यताओं को पूर्वपक्ष में रखकर उनका युक्तिपुरस्सर खण्डन किया है । सन्मतितर्क के द्वितीयकाण्ड की टीका का बहुभाग प्रमाणसम्बद्ध चर्चा से युक्त है । अभयदेव ने धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, शान्तरक्षित, कमलशील आदि बौद्ध दार्शनिकों द्वारा मान्य प्रमाण सम्बद्ध मान्यताओं का प्रबल खण्डन प्रस्तुत किया है। अभयदेवसूरि की खण्डनात्मक दृष्टि बहुत पैनी है, जिसका अनुकरण प्रभाचन्द्र देवसूरि आदि उत्तरवर्ती दार्शनिकों ने भी किया है। २५९. सम्मतितर्कटीका (तत्त्वबोधविधायिनी) का प्रकाशन गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद से वि०सं० १९८०-१९८७ के मध्य हुआ था। इसका पुनर्मुद्रण अब रिनसेन बुक कं० जापान से हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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