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________________ ४८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा वैशेषिक,सांख्य आदि समस्त दर्शनों के प्रमाण के स्वरूप पर संक्षिप्त विचार किया है। अष्टशती-समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर आठ सौ श्लोक परिमाण में अकलङ्कने भाष्य की रचना की जिसे अष्टशती कहा जाता है। यह भाष्य समन्तभद्र के दार्शनिक विचारों को तत्कालीन परिवेश में प्रस्तुत करता है। यह गहन, संक्षिप्त एवं अर्थगाम्भीर्य से परिपूर्ण है। इसमें आप्तमीमांसा में उल्लिखित विषयों से अतिरिक्त विषयों का भी समावेश किया गया है, जिनमें बौद्धों के प्रति तर्क प्रमाण की सिद्धि,स्वलक्षण के अनिर्देश्यत्व एवं अनभिलाप्यत्व का खण्डन आदि प्रमुख हैं। अकलङ्क ने इसमें प्रमाण को अनधिगतार्थग्राही होने से अविसंवादक प्रतिपादित किया है ।२३१ 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणम्' कारिका की व्याख्या में प्रमाण के सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया गया है२३२ जिसमें बौद्ध प्रतिपादित प्रमाणलक्षण भी परीक्षित हुआ है। लघीयस्त्रय-जैन प्रमाण -मीमांसा के व्यवस्थापन की दृष्टि से अकलङ्ककी कृतियों में लघीयस्त्रय का प्रमुख स्थान है ।इसका प्रथम प्रकाशन 'अकलङ्कग्रंथत्रयम्' में सिंघी जैन ज्ञानपीठ द्वारा १९३९ ई० में पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के संपादन में हुआ है ।यह छोटे छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह है, जिन्हें प्रवेश कहा गया है । वे तीन प्रवेश हैं-(१)प्रमाणप्रवेश(२) नयप्रवेश और (३) प्रवचन प्रवेश । इन तीनों प्रवेशों में कुल ७८ कारिकाएं हैं जिन पर स्वयं अकलङ्कने विवृति लिखी है। यह विवृति कारिकाओं की व्याख्या मात्र न होकर उनमें सूचित विषयों की पूरक है । अकलङ्क ने कारिकाओं में छूटे विषय को विवृति में पूरा किया है। सम्पूर्ण लघीयखय में ६ परिच्छेद हैं। प्रमाणप्रवेश के चार तथा नयप्रवेश एवं प्रवचन प्रवेश के एक-एक परिच्छेद हैं। प्रमाणप्रवेश में प्रमाणों की चर्चा है ,जिसमें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण का स्वरूप बतलाकर प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक एवं मुख्य ये दो भेद किये गये हैं।२३३ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को इन्द्रियनिमित्त एवं अनिन्द्रियनिमित्त में विभक्त कर अवग्रहादि की प्रमाणता सिद्ध की गयी है। अवग्रह,ईहा,अवाय एवं धारणा को प्रमाण प्रतिपादित करते समय पूर्व ज्ञान की प्रमाणता एवं उत्तर ज्ञान की फलरूपता बतलायी गयी है ।प्रमेय को अकलङ्क ने द्रव्यपर्यायात्मक सिद्ध किया है। नित्यैकान्त एवं क्षणिकैकान्त में अर्थक्रियाकारित्व का अभाव निरूपित किया है । परोक्षप्रमाण चर्चा में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का भेद प्रतिपादित कर तर्क का पृथक् प्रामाण्य सिद्ध किया है। साध्याविनाभावी लिङ्ग से लिङ्गी के ज्ञान को अनुमान का लक्षण निरूपित कर कारण, पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं का समर्थन किया है। उपमान का अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान में किया है तथा अदृश्यानुपलब्धि से अभाव की सिद्धि निरूपित की है। उन्होंने विकल्पबुद्धि का प्रामाण्य अंगीकार किया है। प्रमाणप्रवेश के अंतिम परिच्छेद में किसी भी २३१. प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाऽधिगमलक्षणत्वात् ।- अष्टशती, पृ० १७५ २३२. द्रष्टव्य, अष्टशती, पृ० २७५-८४ २३३. प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं मख्यसंव्यवहारतः । परोक्ष शेषविज्ञानं प्रमाणे इति सङ्ग्रहः ।।-लघीयलय,३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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