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________________ ३८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अनैकान्तिक एवं विरुद्ध हेत्वाभासों का भी कथन किया है ।१७६ यह उनके प्रमाण-व्यवस्थापन के प्रौढत्व का सूचक है । सिद्धसेन ने अपनी इस लघुकाय कृति में प्रमाणों के साथ नय की भी चर्चा की है। उनके द्वारा प्रदत्त प्रमाता का लक्षण भी उल्लेखनीय है ।१७७ इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सिद्धसेन विरचित न्यायावतार जैनन्याय का निरूपण करने वाली आद्य कृति है, जिसका अवलम्बन उत्तरकालवी जैन नैयायिकों ने अवश्य लिया है। शान्तिसूरि का वार्तिक एवं सिद्धर्षिगणि की विवृति -न्यायावतार पर पूर्णतलगच्छीय शान्तिसूरि का वार्तिक तथा सिद्धर्षिगणि की विवृति (टीका) प्रसिद्ध है । शान्तिसूरि कृत वार्तिक एवं वृत्ति का प्रकाशन सिंघी जैन ग्रंथमाला बंबई से पं० दलसुख मालवणिया के संपादन में १९४९ ई. में हुआ है । शान्तिसूरि ने अपने वार्तिक में सिद्धसेन कृत प्रमाण चिन्तन का पोषण एवं जैनेतरदार्शनिकों की प्रमाण मान्यताओं का खण्डन किया है । उन्होंने ज्ञाता की अपेक्षा से प्रमेय दो प्रकार का माना है तथा दूर एवं निकट से जो प्रतिभास में भेद होता है उसके आधार पर प्रमेय को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कहा है।१७८ शान्तिसूरि ने विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है तथा उसे तीन प्रकार का प्रतिपादित किया हैइन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रिप्रत्यक्ष एवं योगज प्रत्यक्ष । १७९ वैशद्य की परिभाषा शान्तिसरि की अपनी निजी विशेषता है । उनके अनुसार इदन्तया प्रतिभास ही वैशद्य है ।१८° धर्मकीर्ति एवं दिइनाग का प्रभाव भी शान्तिसूरि पर परिलक्षित होता है । धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष को कल्पनापोढ कहकर उसे प्रत्यक्ष से सिद्ध बतलाया है । शान्तिसूरि ने प्रत्यक्ष को कल्पनायुक्त कहकर प्रत्यक्ष से ही सिद्ध कहा है ।१८१ शान्तिसूरि ने परोक्ष प्रमाण को दो प्रकार का माना है -लिङ्ग से होने वाला अनुमान एवं शब्दों से होने वाला आगम।१८२ स्मृति,प्रत्यभिज्ञान,एवं तर्क को शान्तिसूरि ने पृथक् प्रमाण नहीं माना है, किन्तु अन्य दार्शनिकों द्वारा मानने का उन्होंने उल्लेख किया है।८३ पात्रकेसरी के अन्यथानुपपन्नत्व श्लोक को भी शान्तिसूरि उद्धृत करते हैं । शांतिसूरि आचार्य सिद्धसेन, मल्लवादी एवं समन्तभद्र के पश्चात् १७६. अन्यथानुपपनत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रतीतिसंदेहविपर्यासैस्तदाभता ॥ असिद्धस्त्वप्रतीतो यो योऽन्यथैवोपपद्यते । विरुद्धो योऽन्यथाप्यत्र युक्तोऽ नैकान्तिक: स तु ||-न्यायावतार, २२-२३ १७७. प्रमाता स्वान्यनिर्भासी कर्ता भोक्ता विवृत्तिमान् । स्वसंवेदनसंसिद्धो जीव: क्षित्याद्यनात्मकः ।।-न्यायावतार,३१ १७८. न्यायावतारवार्तिक, १२-१४ १७९. न्यायावतारवार्तिक,१७ १८०. वैशद्यमिदन्त्वेनावभासनम् ।-न्यायावतारवार्तिक, १७ १८१. धर्मकीर्ति-प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।-प्रमाणवार्तिक २.१२३ शान्तिसूरि-प्रत्यक्ष कल्पनायुक्तं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।-न्यायावतारवार्तिक, २८ १८२. परोक्ष द्विविधं प्राहुलिंगशब्दसमुद्भवम् ।-न्यायावतारवार्तिक , ३८ १८३. (i) लैङ्गिकात् प्रत्यभिज्ञादि भिन्नमन्ये प्रचक्षते ।-न्यायावतारवार्तिक, ३८ (ii) स्मृत्यूहादिकमित्येके---न्यायावतारवार्तिक,१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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