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________________ १६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा गुरु विज्ञानवादी वसुबन्धु थे । उनका उदय भारतीय दर्शन के इतिहास में एक महानतम घटना थी। न्यायशास्त्र पर रचित उनकी प्रमुख रचनाएं है-(१) आलम्बन परीक्षा(२)त्रिकालपरीक्षा(३)हेतुचक्र समर्थन (हेतु चक्र-हमरू)(४) न्यायमुख (न्यायद्वार) (५)प्रमाणसमुच्चय (सवृत्ति) और (६)हेतुमुख इनमें से अभी तक प्रमाणसमुच्चय का प्रत्यक्ष परिच्छेद एवं आलम्बन परीक्षा ही संस्कृत भाषा में अनूदित हो पाए हैं । न्यायप्रवेश भी संस्कृत में उपलब्ध है, किन्तु इसे दिड्नाग अथवा उनके शिष्य शंकरस्वामी की रचना समझा जाता है । इन तीनों रचनाओं का परिचय आगे प्रस्तुत है । अन्य रचनाएं चीनी या तिब्बती भाषा में सुरक्षित हैं। प्रमाण-समुच्चय-दिनाग की यह उत्कृष्ट एवं सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें न्यायशास्त्र अथवा प्रमाणविद्या का सम्यक् निरूपण है। मध्यकालीन-न्याय का विकास इसी पर केन्द्रित है। मीमांसा,न्याय,जैन आदि दर्शनों में जो न्यायविद्या का विकास हुआ है,वह दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय पर अवलम्बित है । दिइनाग का प्रमाणसमुच्चय नहीं होता तो संभव है न्याय एवं मीमांसा दर्शनों में उद्योतकर व कुमारिलभट्ट जैसे तार्किकों की रचनाओं का उदय नहीं होता,क्योंकि दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय का खण्डन करने के लिए ही उद्योतकर एवं कुमारिल भट्ट ने क्रमशः न्यायवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक का निर्माण किया। मल्लवादी के द्वादशानियचक्र एवं सिंहसूरि की न्यायागमानुसारिणी टीका में भी प्रमाणसमुच्चय का खण्डन हुआ। दिइनाग का प्रमाणसमुच्चय बौद्धेतर दार्शनिकों के लिए एक चुनौती था। इसमें न्याय,वैशेषिक,मीमांसा एवं सांख्य दर्शनों का खण्डन तो किया ही गया है, किन्तु अपने पूर्ववर्ती बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धु के प्रतिपादन का भी यथावसर खण्डन कर मौलिक प्रतिपादन किया गया है, इसलिए प्रमाणसमुच्चय भारतीय प्रमाणविद्या की एक अद्वितीय कृति कही जा सकती है। प्रमाणसमुच्चय का संस्कृत मूल उपलब्ध नहीं है,किन्तु उसका तिब्बती अनुवाद बेंगूर कलेक्शन्स (Bstanhgyur Collections) में सुरक्षित है। इसके प्रत्यक्ष परिच्छेद को पुनः संस्कृत में लाने का प्रयास दो विद्वानों ने किया है। प्रथम प्रयास एच० आर० रंगास्वामी अयंगर ने किया । उन्होंने प्रमाणसमुच्चय (Pramanasamuccaya)नामक पुस्तक में प्रत्यक्ष परिच्छेद का संस्कृत अनुवाद प्रस्तुत किया जो मैसूर विश्वविद्यालय, मैसूर से सन् १९३० ई. में प्रकाशित हुआ। उन्होंने प्रमाणसमुच्चय के साथ दिङ्नाग की स्ववृत्ति को तो दिया ही है, किन्तु उससे सम्बन्धित स्थलों को न्यायवार्तिक, न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका , तत्वार्थराजवार्तिक , सन्मतितर्कप्रकरणटीका , तत्वसंग्र७८. (i) इनके अतिरिक्त बौद्ध धर्म-दर्शन पर उनकी अन्य रचनाएं हैं (ii) अभिधर्मकोशमर्मप्रदीप (२) अष्टसहस्रिकाप्रज्ञापारमिता आदि (ii) मसाकी हत्तौड़ी नेThe Tohoka Catalogue of the Tibetan Bstanhgyur नामक तिब्बती केटलाग के आधार पर २२ ग्रन्थों की सूची दी है।-द्रष्टव्य, Dignaga, on perception, Introduction, p.6 ७९. Dignaga, On perception., Introduction, p.6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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