SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा भी कहा जाता है। वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि समस्त मूर्धन्य दार्शनिक इसी सम्प्रदाय में हुए,किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से अध्ययन करने पर यह भलीभाँति विदित होता है कि बौद्ध प्रमाणवाद विशुद्ध विज्ञानवाद की देन नहीं है । दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर आदि समस्त बौद्ध नैयायिक बाह्य अर्थ की भी सत्ता स्वीकार कर प्रमाण व्यवस्था का स्थापन करते हैं, अतः विज्ञानवाद के व्याख्याकार विज्ञानवादियों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं - आगमानुयायी एवं युक्त्यनुयायी।६९ आचार्य असंग, वसुबन्धु आदि को वे आगमानुयायी श्रेणी में स्थापित करते हैं,क्योंकि ये सप्तभूमिशास्त्र एवं अष्टप्रकरणा-दि शास्त्रों का अनुसरण करते हुए अपने मत की स्थापना करते हैं तथा अष्टविज्ञान के सिद्धान्त को भी स्वीकार करते हैं । दिइनाग, धर्मकीर्ति आदि आचार्यों की परम्परा को वे युक्त्यनुयायी श्रेणी में रखते है,क्योंकि ये आचार्य आलयविज्ञान एवं क्लिष्ट मनोविज्ञान की सत्ता नहीं मानकर युक्ति का अनुसरण करते हैं। __श्वेरबात्स्की दिङ्नाग,धर्मकीर्ति आदि दार्शनिकों को विशुद्ध विज्ञानवादी नहीं मानते,उन्हें उनमें सौत्रान्तिक बौद्धों के भी लक्षण दिखाई पड़ते हैं,अतः वे इन दार्शनिकों को सौत्रान्तिक-योगाचार नामक नयी श्रेणी में स्थापित करते हैं। ७० धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री ने भी इसका समर्थन किया है। दासगुप्ता ने दिइनाग को वैभाषिक या सौत्रान्तिक सम्प्रदाय में रखा है । सातकडि मुकर्जी ने इस सम्प्रदाय को दिङ्नाग-सम्प्रदाय ही कहा है। श्रीनिवास शास्त्री ने इसे बौद्ध दर्शन का न्यायवादी सम्प्रदाय माना है।७२ प्राचीन बौद्ध दार्शनिक दुर्वेकमिश्र एवं प्राचीन प्रसिद्ध दार्शनिक वाचस्पतिमिश्र इन्हें सौत्रान्तिक मानते हैं।७३ ___ वस्तुतः दिङ्नाग सम्प्रदाय के दार्शनिकों ने प्रमाणमीमांसा का प्रतिपादन विज्ञानवाद के अनुसार गौण रूप से एवं बाह्यार्थवाद की अपेक्षा प्रमुख रूप से किया है। प्रामाण्यं व्यवहारेण (प्रमाणवार्तिक १७) प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्'(प्रमाणवार्तिक,१३)आदि कथनों के साथ प्रत्यक्ष-लक्षण में अभ्रान्त' पद,प्रत्यक्ष-भेदों में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं मानसप्रत्यक्ष, स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण रूप बाह्य प्रमेय आदि का प्रतिपादन बाह्यार्थ को स्वीकार करने का ही संकेतक है । धर्मकीर्ति ने वैसे प्रमाणवार्तिक में विज्ञप्तिमात्रता का विचार करते समय स्वसंवेदन को ही उपचार से अर्थवेदन कहा है-स्वविदप्यर्थविन्मता (प्रमाणवार्तिक ,२.३५०)। ६९. बौद्धविज्ञानवादः चिन्तन एवं योगदान, भूमिका, पृ०६ ७०. Buddhist Logic, Vol., 1,p. 529 ७१.Critique of Indian Realism, pp. 60-61 ७२. (6) AHistory of Indian Philosophy, Vol, 1,p.120 (ii) The Buddhist Philosophy of Universal flux, p.273 (iii) वाचस्पतिमिश्र द्वारा बौद्ध-दर्शन का विवेचन, पृ. ४०-४२ ७३. (i) धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ.५८ ।। (ii) वाचस्पति मिश्र द्वारा बौद्ध-दर्शन का विवेचन, पृ. ३७-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy