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________________ प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास ३७१ धर्मकीर्ति के द्वारा दिया गया पितृरूप हेतु भी उचित नहीं है,क्योंकि गर्भ एवं उसकी उत्पत्ति साक्षात् पिता के रूप में अनुकरण नहीं करती है । ०१ ____ अर्थसारूप्य को प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अर्थसारूप्य के होने पर भी प्रामाण्य में व्यभिचार आता है । विषय या अर्थ को कारण मानने पर ज्ञान में कोई वैशिष्ट्य नहीं आता है,यदि कोई वैशिष्टय आता है तो नील अर्थ की नीलाकारता के समान ज्ञान में जडाकारता का भी सारूप्य स्वीकारना चाहिए।०२ अकलङ्क कहते हैं कि जिस अर्थ का सारूप्य ग्रहण किया जाता है,वह सारूप्य उस अर्थ की एवं तत्सदृश अर्थों की अनेक सन्तानों में संभव है, अतः अर्थ से उत्पन्न सारूप्य में व्यभिचार आता है। जब सारूप्य में व्यभिचार आता है तो उस सारूप्य से प्रतिनियत अर्थ का अध्यवसाय नहीं किया जा सकता।०३ विद्यानन्द-विद्यानन्द ने प्रतिपादित किया है कि सारूप्य को प्रमाण तथा अधिगति को फल मानते हुए इनको एकान्ततः अभिन्न नहीं माना जा सकता । ०४ विद्यानन्द बौद्धों से कहते हैं कि यदि इनमें काल्पनिक भेद प्रतिपादित किया जाता है तो निरंश ज्ञान में प्रमाण एवं फल ये दो रूप कल्पित करने का कोई विशेष हेतु संभव नहीं है।०५ यदि असारूप्य की व्यावृत्ति से सारूप्य तथा अनधिगतव्यावृत्ति से अधिगत की कल्पना की जाती है तो इस प्रकार दरिद्र पुरुष में अराज्य की व्यावृत्ति होने से राज्य तथा अनिन्द्र की व्यावृत्ति होने से इन्द्र की भी कल्पना की जा सकती है ।१०६ यदि प्रतिकर्मव्यवस्था की दृष्टि से सारूप्य की कल्पना की गयी है तो उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों में जो अर्थसारूप्य माना गया है उससे अर्थ में क्षणिकता का व्यवस्थापन नहीं होता। जिस प्रकार नीलाकार होने से ज्ञान नील अर्थ का व्यवस्थापक होता है उसी प्रकार उसे क्षणक्षयादि का भी व्यवस्थापक होना चाहिए, जिसे बौद्ध स्वीकार नहीं करते हैं ।१०७ विद्यानन्द का मत है कि प्रमाण जिस प्रकार योग्यता मात्र से स्वयं को जानता है उसी प्रकार अर्थ को भी जान लेता है । इसमें प्रतीति का उल्लंघन नहीं है ।१०८ १०१. (i) तद्रूपानुकृतौ हेतुः तत्साक्षाजन्मतैव न। परिणामाविनाभावात् गर्भपित्रादिरूपवत् ।।-सिद्धिविनिश्चय, ९.२५ (ii) धर्मकीर्ति के द्वारा दिए गए हेतु के लिए द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, १३१ १०२. तत्पुनः नीलतयेव जड़ात्मनापि सुतरां सारूप्यम्।-सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, ११.२२, पृ०७२७ १०३. तज्जन्मसारूप्यलक्षणं व्यभिचरति समानार्थदर्शननानैकसन्तानेषु संभवात् । तदध्यवसायहेतुत्वं च । -सिद्धिविनि श्चयवृत्ति, ११.२२, पृ०७२७ १०४. तन्न सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमेकान्ततोऽनन्तरम्।- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, भाग-२, पृ० ३९३ १०५. तन्न युक्तं निरंशायाः संवित्तेद्वर्यरूपताम् । तात्वार्थश्लोकवार्तिक, १.६.३१ १०६. विना हेतुविशेषेण नान्यव्यावृत्तिमात्रतः । कल्पितोऽथोऽर्थसंसिद्ध्यै सर्वथातिप्रसंगतः ।।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.६.३२ १०७. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.६.३३-३४ १०८. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.६.३५ Jain Education International For Private, & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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