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________________ प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास ३६५ का ज्ञान फल है।५ इसी प्रकार जब ज्ञानांश में विप्लव के कारण अर्थ की व्यवस्थिति का ज्ञान होता है तो ज्ञान को सविषय जानना चाहिए । तब उस ज्ञान में रही हुई विषयाकारता प्रमाण है तथा ज्ञानाकारता के अनुभव रूपजो अर्थ का निश्चय है,वह प्रमाण फल है।५६ इस प्रकार विषयाकारता या अर्थसारूप्य प्रमाण तथा विषयाधिगति या अर्थाधिगति फल है। शान्तरक्षित, कमलशील आदि ने विज्ञानवाद के पक्ष में स्वसंवित्ति को फल तथा स्वसंवेदन की योग्यता को प्रमाण कहा है तथा बाह्यार्थ के पक्ष में विषयाधिगति को प्रमाणफल तथा विषय-सारूप्य को प्रमाण स्वीकार किया है।५७ इस प्रकार ज्ञान को प्रमाण एवं फल दोनों रूपों में स्वीकार करते हुए भी बौद्धदार्शनिक आपेक्षिक दृष्टि से उसमें कथञ्चित् भेद का प्रतिपादन करते हुए दोनों का व्यवस्थापन करते हैं। व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव अर्थ-सारूप्य को प्रमाण एवं अर्थाधिगति को फल प्रतिपादित करते हुए बौद्ध दार्शनिकों ने उनमें व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव से साधन एवं साध्य का द्योतन किया है,जन्य-जनक भाव से नहीं।५८ मीमांसकों एवं नैयायिकों ने प्रमाण तथा फल में जन्य-जनकभाव स्वीकार किया है। बौद्ध दार्शनिकों ने एक ही ज्ञान में प्रमाण एवं फल की व्यवस्था करने के लिए अर्थसारूप्य को प्रमाण कह कर उसे व्यवस्थापक तथा अर्थाधिगति को फल कह कर उसे व्यवस्थाप्य प्रतिपादित किया है, तथा इससे प्रतिकर्म या प्रतिनियत व्यवस्था का संचालन माना है । तदुत्पत्ति, तद्रूपता एवं तदध्यवसाय प्रमाण एवं फल में व्यव्यस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव स्वीकार करने के साथ ही बौद्ध दर्शन में तदुत्पत्ति,तद्रूपता एवं तदध्यवसाय शब्दों का आगमन हुआ । मैं जिस वस्तु का ज्ञान कर रहा हूं उसका ज्ञान वस्तुसरूप अर्थात् तद्रूप कैसे हो जाता है ? इसका समाधान करने के लिए बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि अमुक ज्ञान अमुक वस्तु से उत्पन्न होता है । ज्ञान की उत्पत्ति में वस्तु अर्थात् 'अर्थ' कारण है । अर्थ से उत्पन्न होने के कारण ही ज्ञान में अर्थ का सारूप्य किंवा ताद्रूप्य आता है,और ताद्रूप्य आने ५५. यदा निष्पन्नतद्धाव इष्टाऽनिष्टोऽपि वा परः । विज्ञप्तिहेतुर्विषयस्तस्याश्चानुभवस्तथा ॥-प्रमाणवार्तिक, २.३३८ ५६. यदा सविषयं ज्ञानं ज्ञानांशेऽर्थव्यवस्थिते: । तदा य आत्मानुभव : स एवार्थविनिश्चयः ||- प्रमाणवार्तिक, २.३३९ ५७.विषयाऽधिगतिमात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥-तत्वसङ्ग्रह, १३४३ ५८. (१) न चात्र जन्यजनकभावनिबन्धन : साध्यसाधनभाव : , येनैकस्मिन् वस्तुनि विरोध : स्यात् , अपितु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन ।-धर्मोत्तर,न्यायबिन्दटीका,१.२१ पृ.८८ (२) द्रष्टव्य, व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन साध्यसाधनव्यवस्था नोत्पाद्योत्पादकभावेन ।- तत्त्वसमहपञ्जिका, १३४५, पृ.४८८ ५९. व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य । व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरूपम् ।-न्यायविन्दुटीका, १.२१, पृ. ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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