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________________ अनुमान-प्रमाण २३१ लेते हैं ? क्योंकि पक्षधर्मत्व एवं सपक्षसत्व इन रूपद्वय के होने पर भी विपक्षव्यावृत्ति रूप के अभाव में हेतु अपने साध्य का गमक नहीं होता है, अतः नियमवती विपक्षव्यावृत्ति रूप अविनाभाव ही हेतु का प्रधान लक्षण होना चाहिए। विपक्ष से नियमवती व्यावृत्ति के होने पर अन्य दोनों पक्षधर्मत्व एवं सपक्षसत्त्व रूपों की अपेक्षा किये बिना भी हेतु साध्य का गमक हो जाता है ।१५२ यहां हेमचन्द्र ने नियमवती विपक्षव्यावृत्ति को जैन सम्मत अविनाभाव का एकार्थक स्वीकार किया है। समीक्षण जैन दार्शनिकों द्वारा बौद्धों के रूप्य हेतु-लक्षण की आलोचना का अध्ययन करने पर विदित होता है कि जैन दार्शनिकों को हेतु में त्रैरूप्य के सद्भाव से कोई विरोध नहीं है, किन्तु त्रैरूप्य को हेतु का लक्षण मानने से विरोध है । उनके अनुसार पक्षधर्मत्व,सपक्षसत्व एवं विपक्षासत्त्व रूप त्रिरूपता का सद्भाव हेत्वाभास में भी देखा जाता है, इसलिए इसको हेतु का लक्षण नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि त्रिरूपता हेतु का असाधारण लक्षण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी हेतु अविनाभावित्व के कारण सद्हेतु हो सकता है। इसकी पुष्टि में उन्होंने अनेक उदाहरण दिये हैं,यथा "एक मुहूर्त पश्चात् शकट नक्षत्र का उदय होगा,क्योंकि अभी कृत्तिका नक्षत्र का उदय हुआ है" इस अनुमिति वाक्य में कृत्तिकोदय हेतु पक्षधर्मत्व रहित है,तथापित शकटोदय साध्य का अव्यभिचरित रूप से गमक है। विचारणीय यह है कि पक्षधर्मत्व के अभाव में बौद्ध दार्शनिक किसी भी हेतु को सद्हेतु नहीं मानते हैं, किन्तु जैनदार्शनिकों ने कृत्तिकोदय हेतु से शकटोदय साध्य की सिद्धि कर तथा जलचन्द्र से नभचन्द्र की अथवा नभचन्द्र से जलचन्द्र की अनुमिति प्रस्तुत करके हुते में पक्षधर्मता होने की आवश्यकता को खण्डित कर दिया है । कृत्तिकोदय हेतु का पक्ष शकटोदय साध्य नहीं होता है तथा आकाश भी उसका पक्ष नहीं हो सकता,क्योंकि वह अन्य समस्त हेतुओं के लिए भी साधारण है। इसी प्रकार जलचन्द्र द्वारा नभचन्द्र या नभचन्द्र द्वारा जलचन्द्र का अनुमान भी पक्षधर्मत्व रहित है । बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने कृत्तिकोदय या शकटोदय को प्रभंजन का कारण मानकर कार्य हेतु सिद्ध किया है,५२ किन्तु शान्तरक्षित कृत खण्डन उपादेय,लोकव्यवहार्य एवं वस्तुभूत नहीं लगता। शान्तरक्षित ने जलचन्द्र से नभचन्द्र या नभचन्द्र से जलचन्द्र के अनुमान को असत् बतलाया है,क्योंकि उनके मत में प्रतिबिम्ब असत् होता है ।१५४ १५२. प्रमाणमीमांसा, पृ.४० १५३. प्रभजनविशेषश्च कृत्तिकोदयकारणम्। यः स एव हि सन्तत्या रोहिण्यासत्तिकारणम् ।।- तत्त्वसङ्ग्रह, १४२३ १५४. (i) सहेका दयासत्त्वान्न वस्तुप्रतिबिम्बकम्। तत् कथं कार्यता तस्य युक्ता चेत् पारमार्थिकी ॥-तत्त्वसङ्ग्रह, १४२६ (ii) जैन दार्शनिक रत्नप्रभसूरि ने जलचन्द्र से नभचन्द्र की अनुमिति द्वारा अन्य देश में स्थित हेतु से अन्य देशस्थ साध्य की सिद्धि बतलायी है, (रत्नाकरावतारिका, भाग-२ पृ. ३५),किन्तु जल को नभ, पृथ्वी आदि की भांति साधारण होने से पक्ष बनाना उचित प्रतीत नहीं होता है। Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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