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________________ अनुमान-प्रमाण २२५ होता है ।११६ जिस हेतु में साध्य के साथ अन्यथानुपपन्नत्व है वही सद्हेतु है उसके साथ साधर्म्य एवं वैधर्म्य दोनों के दृष्टान्त हों या न हों उनसे कोई अन्तर नहीं आता,क्योंकि वे सुहेतुता के कारण नहीं हैं।११७ जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व है,उसमें त्रैरूप्य का कोई प्रयोजन नहीं है तथा जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है उसमें भी त्रैरूप्य का होना कोई अर्थ नहीं रखता।११८ वह श्यामवर्ण है उस (मैत्री) का पुत्र होने से,उसके अन्य पुत्रों के समान । उसके अन्य पुत्र भी श्याम वर्ण देखे गये हैं। यह विलक्षण युक्त हेतु साध्य का निश्चय नहीं करा पाता, अतः अविनाभाव के अभाव में त्रिरूपता निरर्थक है ।११९ जिसमें एक अन्यथानुपपन्नत्व युक्त पक्षधर्मत्व लक्षण है,किन्तु साधर्म्य एवं वैधर्म्य दृष्टान्त से रहित है फिर भी वह सद् हेतु है,यथा भाव एवं अभाव कथञ्चित् सदात्मक हैं,कथञ्चित् उपलब्ध होने से।' भाव एवं अभाव में समस्त पदार्थ पक्ष बन जाते हैं,अतःसपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व का अभाव रहता है । इस प्रकार एक पक्षधर्मत्वयुक्त अन्यथानुपपन्नत्व लक्षण से भी हेतु साध्य का गमक हो जाता है । १२० दो लक्षण वाले हेतु भी सद्धेतु हो सकते हैं । यथा- (१) अचन्द्र शशलांछन युक्त नहीं होता, चन्द्रमा शशलाञ्छन युक्त होता है,क्योंकि चन्द्र नाम से वह लोक में प्रसिद्ध है।' इस हेतु में शशी पक्ष है इसका कोई सपक्ष नहीं है, किन्तु लोष्ठ आदि विपक्ष में यह हेतु नहीं जाता है । (२) मेरी यह वेदना पतंगे के द्वारा काटे जाने से हुई है,क्योंकि पतंगे के स्पर्श से यह स्थान फूला हुआ है । इस हेतु का भी कोई सपक्ष नहीं है। इसलिये यह भी द्विरूप हेतु है । (३) रूप को ग्रहण करने में चक्षु अतिशयशक्तिमान् है,क्योंकि उसका देखने हेतु करण' के रूप में उपयोग किया जाता है । इस हेतु में चक्षु का कोई सपक्ष नहीं है,विपक्ष श्रोत्रादि में यह हेतु नहीं रहता है । इस प्रकार यह भी द्विरूप हेतु है। इस प्रकार इन तीनों हेतुओं में सपक्षसत्त्व नहीं है तथापि ये सद्हेतु हैं।१२१ आत्मघटादि कथञ्चित् असत्स्वरुप है,क्योंकि कथञ्चित् उपलब्ध नहीं होते हैं,खरश्रृंग के समान । कथञ्चित् शशश्रृंगादि भी सत् स्वरुप हैं, क्योंकि कथञ्चित् उपलब्ध होते हैं, जिस प्रकार कि आत्मघटादि । इन हेतुओं में ११६. अविनाभावसम्बन्धनिरूपेषु न जातुचित्। अन्यथाऽसम्भवैकाङ्गहेतुष्वेवोपलभ्यते ।।- तत्त्वसङ्ग्रह, १३६६ ११७. अन्यथानुपपन्नत्वं यस्य तस्यैव सुहेतुता । दृष्टान्तौ द्वावपि स्तां वा मा वा तो हि न कारणम् ||- तत्त्वसङ्ग्रह, १३६७ ११८. अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम।। नान्यथानपपन्नत्वं यत्र तत्रत्रयेण किम-तत्वसङ्ग्रह.१३६८ ११९.स श्यामस्तस्य पत्रत्वाद दृष्टा श्यामा यथेतरे। इति त्रिलक्षणो हेतुर्न निश्चित्यै प्रवर्तते ॥- तत्त्वसङ्ग्रह,,१३६९ १२०. तत्रैकलक्षणो हेतुर्दृष्टान्तदयवर्जितः । कथशिदुपलभ्यत्वाद् भावाभावी सदात्मको ।।-तत्त्वसङ्ग्रह, १३७० १२१. तत्त्वसङ्ग्रह, १३७१-१३७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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