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________________ २०४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा की है३९७ तथा बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने बुद्ध की धर्मज्ञता को महत्त्व दिया है। समीक्षण प्रत्यक्ष की निर्विकल्पकता एवं सविकल्पकता भारतीय दर्शनों में विवाद का विषय रही है। निर्विकल्पकता एवं सविकल्पकता में स्पष्ट भेद का प्रतिपादन सर्वप्रथम बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने किया । प्रशस्तपाद ने प्रत्यक्ष के लिए स्वरूपालोचन,अविभक्तालोचन आदि शब्दों का प्रयोग किया है ,किन्तु दिइनाग के अनन्तर निर्विकल्पक एवं सविकल्पक प्रत्यक्ष की चर्चा प्रमाणमीमांसा का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गयी। जिसने कुमारिल , वाचस्पतिमिश्र , गंगेश आदि को भी प्रभावित किया।३९८ जैनदार्शनिक भी इस चर्चा में सम्मिलित हुए , किन्तु उन्होंने प्रत्यक्ष को सविकल्पक स्वीकार कर निर्विकल्पकता का निरसन किया है। _ जैन दार्शनिकों द्वारा की गयी बौद्ध-प्रत्यक्ष की आलोचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनदार्शनिकमत में प्रत्यक्ष-प्रमाण सविकल्पकात्मक, व्यवसायात्मक एवं विशदात्मक होता है तथा वही संवादक एवं अर्थक्रिया में प्रवर्तक भी होता है । जैनों के अनुसारबौद्ध सम्मत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में व्यवसायात्मकता नहीं है , इसलिए वह न संवादक है, न अर्थक्रिया में प्रवर्तक और न ही विशद ।बौद्धों ने निर्विकल्पक ज्ञान को विधि-निषेध रूप विकल्पात्मकज्ञान का जनक होने के कारण व्यवहार का अंग माना है, किन्तु जैनों के अनुसार व्यवसायात्मकता के अभाव में निर्विकल्पक के द्वारा सविकल्पक ज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं है,जिससे निर्विकल्पज्ञान व्यवहार में प्रवर्तक या संवादक सिद्ध हो सके । जो भी ज्ञान प्रतीत होता है वह सविकल्पक ही प्रतीत होता है,निर्विकल्पक ज्ञान का अनुभव नहीं होता। इसलिए निर्विकल्पक एवं सविकल्पक ज्ञान के एकत्व अध्यवसाय का भी जैनदार्शनिकों ने खण्डन किया है । इन्द्रियप्रत्यक्ष ही नहीं स्वसंवेदन एवं योगिप्रत्यक्ष भी जैनदार्शनिकों के अनुसार सविकल्पक एवं निश्चयात्मक होने पर ही प्रमाण हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार सविकल्पज्ञान में शब्दयोजना निहित रहती है ।इसलिए वह प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। प्रत्यक्ष तो कल्पनापोढ होता है । वह अर्थ को अर्थरूप में ही विषय करता है, शब्दसन्निवेश का होना उसमें उचित नहीं है । अर्थ शब्दविविक्त होता है इसलिए उसका प्रत्यक्ष भी शब्दयोजना रहित होता है। नामयोजना अथवा शब्दयोजना काल्पनिक है,वास्तविक नहीं। दिङ्नाग ने नामयोजना के अतिरिक्त जाति,गुण,क्रिया एवं द्रव्य की योजना को भी कल्पना कहकर प्रत्यक्ष प्रमाण में उसको निराकृत किया है । बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है,तथा वह अनभिधेय है, इसलिए धर्मकीर्ति ने अभिलाप के संसर्गयोग्य प्रतिभासप्रतीति को भी कल्पना कहकर उसकी प्रत्यक्ष प्रमाण में अपोढता सिद्ध की है। धर्मोत्तर ने अर्थसन्निधि से निरपेक्ष अनियताकार प्रतिभास ३९७. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,१८० ३९८. अधिक विवरण के लिए द्रष्टव्य, धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री, Critique of Indian Realism, pp. 433-471 एवं नगीन जे० शाह, Akalanka's Criticism of Dharmakirti's Philosophy, p.23646 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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