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________________ १९६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा बौद्ध दार्शनिकों के मत में श्रोत्र का शब्द से सन्निकर्ष हुए बिना ही शब्द का ज्ञान हो जाता है जबकि जैन दार्शनिक श्रोत्र से शब्द का सन्निकर्ष होना आवश्यक मानते हैं। यहां पर अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि के अनुसार बौद्ध मन्तव्य को पूर्वपक्ष में रखकर खण्डन प्रस्तुत किया गया है। पूर्वपक्ष-चक्षु एवं मन की भांति श्रोत्र भी अप्राप्यकारी है । श्रोत्र के द्वारा असन्निकृष्ट शब्द का ग्रहण होता है। यदि शब्द श्रोत्र से सन्निकृष्ट होकर गृहीत हो तो शब्द में दूर,निकट आदि का व्यवहार संभव नहीं हो सकता। जिस प्रकार चक्षु का अर्थ से सन्निकर्ष नहीं होने के कारण दूर स्थित पादपादि का ज्ञान होता है उसी प्रकार श्रोत्र के द्वारा असन्निकृष्ट शब्द में दूर या निकटता का ज्ञान होता है । जिस प्रकार तेजस्विता के कारण असन्निकृष्ट रूप का चक्षु में अभिघात होता है उसी प्रकार असन्निकृष्ट शब्द का उसकी तीव्रता के कारण श्रोत्र में अभिघात होता है। उत्तरपक्ष-अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि आदि जैन दार्शनिकों ने श्रोत्र के अप्राप्यकारित्व का खण्डन करते हुए कहा है कि श्रोत्र को अप्राप्यकारी मानने में प्रत्यक्ष से बाधा है। कर्णशष्कुली में प्रविष्ट मच्छर आदि के शब्दों का ज्ञान,श्रोत्र के द्वारा शब्द का सन्निकर्ष होने पर ही होता है। दूर, निकट आदि का व्यवहार श्रोत्र के प्राप्यकारी होने पर भी संभव है । जिस प्रकार घ्राण के द्वारा सन्निकृष्ट गंध का ज्ञान होने पर भी “पद्म की गन्ध दूर से आ रही है,मालती की गंध निकट से आ रही है" इस प्रकार दूरनिकटादि का व्यवहार संभव है उसी प्रकार शब्द का सन्निकर्ष से ग्रहण करते हुए भी उसमें दूर- निकट का बोध होता है। शब्द का ग्रहण सन्निकर्ष पूर्वक होता है ,क्योंकि निर्वात में दूरस्थ पुरुष के द्वारा शब्द सुनाई नहीं देता है । तथा जो शब्द निकटस्थ मनुष्य के द्वारा सुनाई देता है वह प्रतिवात चलने पर उसे सुनाई नहीं देता है । इसका अर्थ है कि शब्द सन्निकृष्ट होकर ही श्रोत्र के द्वारा सुनाई देता है। यदि शब्द अपने उत्पत्ति स्थान में ही गृहीत होते हैं तो दूरस्थ भेरी आदि के शब्दों का ग्रहण नहीं होकर मच्छर के गुनगुनाने का ही शब्द सुनाई देना चाहिए था,किन्तु भेरी या नगाडों की आवाज से मच्छर की आवाज दब जाती है । फलतः भेरी या नगाडों की आवाज ही सुनाई देती है । जैन दार्शनिक चक्षु के अप्राप्यकारित्व का समर्थन एवं श्रोत्र के अप्राप्यकारित्व का खण्डन करते हुए कहते हैं कि सूर्य की किरणे भासुर रूप से लौटकर चक्षु से अभिसंबद्ध होने के कारण चक्षु की अभिघात हेतु होती हैं जबकि श्रोत्र में अभिघात का कोई हेतु नहीं है जो शब्द से लौटकर श्रोत्र से अभिसंबद्ध हो । इसलिए श्रोत्र को प्राप्यकारी मानना ही उचित है ।३५९ मानस-प्रत्यक्ष का खण्डन जैन दर्शन में अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष एवं मनःपर्यवज्ञान का निरूपण बौद्ध दर्शन के मानस-प्रत्यक्ष से एकदम भिन्न है । बौद्धदर्शन में निरूपित मानस-प्रत्यक्ष का समनन्तर प्रत्यय इन्द्रिय-प्रत्यक्ष होता है, ३५९. द्रष्टव्य, तत्त्वबोधविधायिनी, पृ०५४५-४६,न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-१ पृ०८३-८६ एवं स्याद्वादरलाकर,पृ० ३३३-३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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