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________________ प्रत्यक्ष-प्रमाण १८७ क- दोनों का सहभाव माना जाय तो गाय को देखने के समय सहभाव के कारण अश्व के विकल्प का स्पष्ट प्रतिभास होना चाहिए। ख- शब्द स्वलक्षण का श्रोत्रेन्द्रिय से प्रत्यक्ष करते हुए क्षणिकत्व के अनुमान का भी स्पष्ट प्रतिभास होना चाहिए,क्योंकि इनका विषय भिन्न नहीं है। ग- यदि बौद्ध कहते हैं कि श्रोत्रेन्द्रिय के प्रत्यक्ष द्वारा क्षणिकत्व के अनुमान का अभिभव नहीं होता, क्योंकि दोनों भिन्न-भित्र सामग्री से जन्य हैं,एक स्वलक्षण जन्य है तथा दूसरा सामान्य लक्षण जन्य है। यदि अभिन्न सामग्रीजन्य मानने लगें तो समस्त विकल्पों का विशद अवभास होने लगेगा, और अभिन्न सामग्रीजन्य स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से उनका अभिभव हो जाएगा यदि विकल्प एवं स्वसंवेदन की सामग्री एक नहीं है ,क्योंकि विकल्प वासनाजन्य है एवं स्वसंवेदन (निर्विकल्प) संवेदनमात्रजन्य है तो यह उपयुक्त नहीं है ,क्योंकि फिर तो नीलादि विकल्प का भी प्रत्यक्ष से अभिभव नहीं हो सकेगा, क्यों कि भिन्न सामग्री तो वहां पर भी है।३३८ विद्यानन्द एवं अभयदेवसरि द्वारा चर्चित प्रश्न पर प्रभाचन्द्र ने भी विचार कर प्रतिपादित किया है कि सविकल्प एवं निर्विकल्प की एकता का अध्यवसाय न निर्विकल्पक ज्ञान कर सकता है ,न सविकल्पक और न ही ज्ञानान्तर,क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान अध्यवसाय धर्म से रहित होता है, तथा सविकल्प ज्ञान निर्विकल्प ज्ञान को विषय नहीं करता है । यदि विकल्प का विषय निर्विकल्प ज्ञान माना जाता है तो 'विकल्पोऽवस्तुनिर्भासः' आदि बौद्ध वक्तव्य से विरोध पैदा होता है । ज्ञानान्तर से भी दोनों के एकत्व का अध्यवसाय नहीं हो सकता ,क्योंकि ज्ञानान्तर भी या तो निर्विकल्पक होगा या सविकल्पक । अतः उसमें भी पूर्ववत् एकत्व अध्यवसायक सामर्थ्य नहीं है । एकत्व अध्यवसाय के अभाव में निर्विकल्प की विशदता का सविकल्प ज्ञान पर आरोप फलित नहीं होता है । ३३९ प्रभाचन्द्र ने विकल्पज्ञान को निश्चयात्मक माना है तथा निश्चयात्मकता के साथ प्रमाणता की व्याप्ति अंगीकार की है । समस्त चिन्ताओं के संहार की अवस्था में निर्विकल्पक ज्ञान के प्रामाण्य का अन्य जैन दार्शनिकों के समान उन्होंने भी प्रतीकार किया है तथा स्थिरस्थूलादि स्वभाव वाले अर्थ का प्रत्यक्ष माना है । बौद्धों का यह मन्तव्य कि निर्विकल्पक ज्ञान सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न करने के कारण प्रमाण होता है, भी प्रभाचन्द्र के अनुसार उचित नहीं है ,क्योंकि निर्विकल्पज्ञान तो संशयादि विकल्पों को भी उत्पन्न करता है ।अतः वह प्रमाण नहीं हो सकता । संशयादि विकल्पों का उत्पादक ज्ञान बौद्ध मत में भी यदि अप्रमाण है तथा स्वलक्षण का अध्यवसायक ज्ञान प्रमाण है तो यह मंतव्य भी उचित नहीं है ,क्योंकि विकल्प का आलम्बन स्वलक्षण नहीं है,अतःवह स्वलक्षण का अध्यवसाय ३३८. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० ९१-९४ ३३९. द्रष्टव्य, न्यायकुमुदचन्द्र , भाग-१ पृ० ९४-९५ एवं विद्यानन्द व अभयदेव कृत प्रत्यक्ष आलोचना, पृ. १५६ एवं पृ. १७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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