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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदष्टि से समीक्षा संवादक नहीं हो सकता । वे कहते हैं कि जिस प्रकार अज्ञानी पुरुष विष को देखकर भी उसके हानि लाभ का सम्यक् निर्णय नहीं कर सकता उसी प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से हान -उपादान का निर्णय नहीं हो सकता तथा निर्णयात्मक ज्ञान के बिना कोई ज्ञान अविसंवादक नहीं होता ।११८ इस प्रकार धर्मकीर्ति की भांति अकलङ्कप्रमाण की कसौटी अर्थसंवादकता को स्वीकार करके ११९ भी संवादकता को निश्चयात्मक ज्ञान के अधीन मानते हैं ।१२° निश्चयात्मक ज्ञान को वे संशया, विपर्यय एवं अकिञ्चित्कर से रहित मानते हैं१२१ तथा अनिश्चयात्मक ज्ञान को अप्रमाण मानते हैं। अकलङ्कके अनुसार निर्णय के अभाव में अविसंवादकता का अभाव होता है तथा निर्णय के सद्भाव में अविसंवादकता का सद्भाव रहता है। जो ज्ञान निर्णयात्मक होता है वही व्यवहार में प्रवर्तक एवं संवादक होता है। बौद्धों द्वारा कल्पित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अनिश्चयात्मक है इसलिए वह संवादक एवं व्यवहार में प्रवर्तक नहीं हो सकता और संवादकता एवं व्यवहार में प्रवर्तकता के अभाव में उसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता।१२३ विद्यानन्द -विद्यानन्द ने बौद्ध प्रमाणलक्षण में स्थित अविसंवादि पद का सीधा खण्डन नहीं किया है, किन्तु उन्होंने यह अवश्य प्रतिपादित किया है कि प्रमाण का लक्षण ऐसा होना चाहिए जिसमें बाधक का असंभव होना सुनिश्चित हो।१२४ उनकी दृष्टि में स्व एवं अर्थ का निश्चायक ज्ञान ही प्रमाण है तथा उसका कोई निश्चित रूपेण बाधक नहीं है ।१२५ यथाप्रसंग विद्यानन्द ने तत्त्वोपप्लववादी के मुख से धर्मकीर्ति के जीवसंवादित्व लक्षण का खण्डन भी किया है, जिसका कुछ अंश यहां प्रस्तुत है। ___ अविसंवादी ज्ञान प्रमाण का लक्षण नहीं हो सकता,क्योंकि प्रमाण की अर्थक्रियास्थिति रूप अविसंवादकता ज्ञात होकर प्रामाण्य का व्यवस्थापन करती है अथवा अज्ञात रहकर ? स्वयं अज्ञात रहकर तो वह प्रामाण्य का व्यवस्थापन नहीं कर सकती । यदि ज्ञात होकर प्रामाण्य का व्यवस्थापन करती है तो जिस ज्ञान से ज्ञात होती है उसके संवादकत्व का व्यवस्थापन किससे होता है ? यदि संवादकत्व का व्यवस्थापन अन्य संवादज्ञान से होता है तो अनवस्था दोष आता है । यदि अर्थक्रियास्थितिलक्षण युक्त अविसंवाद ज्ञान का प्रामाण्य अभ्यास दशा में स्वतः सिद्ध है तो वह अभ्यास क्या है ? उत्पन्न होने वाले ज्ञान में पुनः संवाद का अनुभव होना अभ्यास है तो वह ११८. द्रष्टव्य, ततीय अध्याय में अकलकत बौद्ध मत का खण्डन, पृ.१५० ११९. प्रमाणमर्थसंवादात् ।-प्रमाणसंग्रह, १० १२०. अविसंवादकत्वं च निर्णयायत्तं ।-लघीयस्त्रयवृत्ति,६० १२१. अकिञ्चित्करसंशयविपर्ययव्यवच्छेदेन निर्णयात्मकत्वं नान्यथा ।-सिद्धिविनिश्चय वृत्ति , १.३, पृ० १३ १२२. तदभावेऽभावात् तद्भावे च भावात् ।-लघीयस्त्रयवृत्ति,६० १२३. द्रष्टव्य, तृतीय अध्याय में अकलङ्क कृत बौद्ध प्रत्यक्ष का खण्डन, पृ.१४९-१५४ १२४. सनिधितासम्भवबाधकत्वेन ।-अष्टसहस्त्री(ज्ञा), भाग-१.१०२१६ १२५. स्वार्थव्यवसायात्मकत्वमेव हि सुनिश्चितासम्भवबाधकत्वम् ।- अष्टसहस्री (ज्ञा.), भाग-१.१०२१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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