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________________ प्राक्कथन जल्प एवं वितण्डा को कथा का अंग नहीं माना गया है,मात्र वाद को ही कथा का अंग माना गया है, फिर भी बौद्धों ने असाधनाङ्गवचन एवं अदोषोद्भावन नामक दो निग्रहस्थानों को स्वीकार किया है जबकि जैनदार्शनिकों ने इनका खण्डन कर वादी के द्वारा स्वपक्षसिद्धि को ही प्रतिवादी का निग्रहस्थान माना है। १७.बौद्धदार्शनिकों ने प्रमाण एवं उसके फल में व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक भाव स्थापित करते हुये अर्थसारूप्य को प्रमाण एवं अर्थाधिगति को फल कहा है। जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के अर्थसारूप्य का प्रबल खण्डन किया है। साथ ही उन्होंने ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ आलोक आदि की कारणता का भी निरास किया है। __ भारतीय दर्शन के अध्येता के रूप में यह कृति मेरा प्रथम प्रयास है । इस अध्ययन से जैन एवं बौद्ध दर्शन के प्रति मेरी रुचि में अभिवृद्धि हुई है। मुझे लगा कि सांख्य,न्याय,वैशेषिक, मीमांसा.बौद्ध और चार्वाक दर्शनों को समझने के लिए जैन दर्शन-ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शोध-कार्यों को भी इनके अध्ययन से नया आयाम मिल सकता है । जैनों ने भारतीय दर्शन की प्रायःप्रत्येक समस्या को समीक्षा का विषय बनाया है। प्रस्तुत अध्ययन में जैन एवं बौद्ध आचार्यों के वे ही ग्रन्थ अध्ययन के आधार बने हैं जो संस्कृत में उपलब्ध हैं। दिङ्नाग आदि दार्शनिकों के वे ग्रन्थ उपयोग में नहीं आ सके जो मात्र चीनी या तिब्बती भाषा में उपलब्ध होते हैं। कृतज्ञता-ज्ञापन मैं स्व. गुरुवर डॉ.रामचन्द्र द्विवेदी, आचार्य, संस्कृत-विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर का हृदय से ऋणी हूँ जिनके कुशल निर्देशन में शोध-कार्य सम्पन्न हो पाया। उन्होंने मुझे समय ही नहीं स्नेह,आत्मीयता एवं सतत प्रेरणा प्रदान कर निरन्तर उत्साहित किया तथा इस योग्य बनाया कि मैं बौद्ध एवं जैन दर्शन ग्रंथों का सूक्ष्म आलोडन कर यह प्रबन्ध लिख सकूँ । अपने स्वर्गमन (२७ सितम्बर १९९३) से पूर्व जून १९९३ में जयपुर में डॉ.द्विवेदी ने इस ग्रन्थ की भूमिका लिखने हेतु सहज स्वीकृति प्रदान की थी,किन्तु दैवयोग से यह संभव नहीं हो सका। यह कार्य अब जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के संस्कृत -विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ.दयानन्द भार्गव ने सम्पन्न किया है । उन्होंने पूर्ण स्नेह, औदार्य एवं आत्मीयता के साथ इस ग्रन्थ की भूमिका लिखकर पाठकों का मार्गदर्शन किया है । मैं एतदर्थ उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। . जैन-विद्या के वर्तमान विद्वानों में शीर्षस्थ पं दलसुखभाई मालवणिया का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने ८२ वर्ष की अवस्था में भी इस ग्रन्थ का अवलोकन कर आशीर्वचन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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