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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप ६३ कर ले। सूत्रकृतांग में इसे स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि जिस प्रकार ताल (ताड़) का फल बन्ध से छूटकर नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार आयुष्य क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी जीवन से च्युत हो जाता है। ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार थावच्चापुत्र के मन में जब वैराग्य उत्पन्न होता है। तब उसकी माता धन-वैभव, सगे-सम्बन्धियों का प्रलोभन देकर दीक्षा न ग्रहण करने का आग्रह करती है, किन्तु थावच्चापुत्र पर उसके अनुनय-विनय का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह अपने निश्चय पर अटल रहता है। तब इच्छा न होते हुए भी माता ने थावच्चापुत्र बालक का निष्क्रमण स्वीकार कर लिया अर्थात् दीक्षा की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् थावच्चापुत्र की माता श्रीकृष्ण के पास गई और उनसे अनुरोध किया कि हे देवानुप्रिय! मैं अपने एकलौते पुत्र का निष्क्रमण सत्कार करना चाहती हूँ, अत: आप प्रव्रज्या अंगीकार करने वाले थावच्चापुत्र के लिए छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें, यही मेरी अभिलाषा है। इस पर श्रीकृष्ण ने थावच्चापुत्र के संयम की परीक्षा लेनी चाही और उससे कहा कि तुम अपना वैराग्य का यह निश्चय छोड़ दो तथा सांसारिक उपभोगों का भोग करो। मैं (श्रीकृष्ण) तुम्हें सभी कष्टों से बचाऊँगा। उनके ऐसा कहने पर थावच्चापुत्र ने श्रीकृष्ण से पूछा कि क्या आप मेरे जीवन का अन्त करनेवाले आते हुए मरण को रोक सकते हैं अगर आप ऐसा कर सके तो मैं आपकी बात मान लँगा।६/थावच्चापुत्र के ऐसा पूछने पर श्रीकृष्ण ने कहा मरण का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। किसी के द्वारा भी उसका निदान सम्भव नहीं है अर्थात् मृत्यु अनिवार्य है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि प्रत्येक प्राणी की मृत्यु अनिवार्य है। भगवती आराधना के अनुसार जीव जन्म लेता है और अपने कर्मों का फल भोगता है, नवीन कर्मों का उपार्जन करता है और अन्त में मृत्यु को प्राप्त करता है। कहने का तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए मृत्यु एक अनिवार्य एवं अपरिहार्य तथ्य है। इससे कोई कभी नहीं बच सकता है। इन जैन साहित्यों के अतिरिक्त ब्राह्मण परम्परा से सम्बन्धित कई धर्म ग्रन्थों में भी मृत्यु की अपरिहार्यता का विशद वर्णन मिलता है। मार्कण्डेयपुराण में मृत्यु की चर्चा करते हुए लिखा गया है - जीव की उत्पत्ति गर्भ में होती है, फिर वह गर्भ से निकलकर वृद्धि करता है और अन्त में मृत्यु को प्राप्त करता है अर्थात् जन्म लेने के बाद मृत्यु अनिवार्य है, अपरिहार्य है। पद्मपुराण के अनुसार जीव निरन्तर जन्म लेता एवं मरता रहता है। ११ पुन: इसी में कहा गया है कि मानव शरीर पाँच . तत्त्वों से मिलकर बना है और अन्त में जर्जरित होकर मृत्यु को प्राप्त करता है।१२ जन्म लेना, वृद्धि करके यौवनावस्था को प्राप्त करना उसके बाद ह्रास करते हुए वृद्धावस्था को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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