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________________ समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ द्वारा जो मरण किया जाता है वह शीघ्रमरण की कामना से मुक्त रहता है। इसके पीछे निर्वाण प्राप्ति की भावना रहती है। इस तरह बौद्धों का आत्ममरण जैनों की ही तरह निर्वाण प्राप्ति का एक साधन है। ऐसा कहा जा सकता है। ईसाई परम्परा और समाधिमरण इच्छितमरण या स्वैच्छिक मृत्युवरण का प्रश्न विश्व के सभी परम्पराओं और धर्मों के समक्ष एक विचारणीय प्रश्न रहा है। इस सम्बन्ध में समय-समय पर सभी परम्परा के लोगों ने अपने-अपने ढंग से विचार प्रस्तुत किए हैं। कभी उन्होंने इसका समर्थन किया है तो कभी विरोध ।' ईसाई धर्म के समर्थकों ने भी स्वैच्छिक मृत्युवरण के प्रश्न पर अपने विचार दिए हैं। वैज्ञानिक विकास-काल में बढ़ती हुई आत्महत्या की समस्या से प्रत्येक व्यक्ति बुरी तरह त्रस्त था। यही कारण है कि पादरी, धर्मगुरु, राजा, साधारण जनता, शिक्षाविद्, समाज सुधारक आदि सभी ने इस विषय पर कुछ चिन्तन किया और अपने विचारों को प्रकाश में लाया। अरस्तु और प्लेटो ने आत्महत्या (इच्छितमरण) पर अपने विचार प्रस्तुत करते हए इसकी निन्दा की है। उनके अनुसार आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति समाज और राज्य दोनों के लिए अपराधी है, क्योंकि वह राज्य द्वारा बनाए गए नियमों की अवहेलना करता है। उनके विचार में आत्महत्या का कभी भी समर्थन नहीं करना चाहिए। इपिक्ट्स (Epicts) मृत्युवरण पर अपने विचार व्यक्त करते हए आत्महत्या के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं- मित्रों! ईश्वरीय आज्ञा की प्रतीक्षा करो कि कब वह हमें यहाँ (संसार) से मानव जाति की सेवा से मुक्त करके अपने पास आने का संकेत करता है। जब वह संकेत करे तभी उसके पास जाने का प्रयत्न करो अर्थात् बिना उसकी आज्ञा के उसके पास पह का प्रयत्न मत करो।१८ कहने का तात्पर्य यह है कि तुम आत्महत्या मत करो जितना जधिक सम्भव हो उससे बचने का प्रयत्न करो। __ सन्त जेरोम (St. Jerome) का विचार आत्महत्या के प्रति निषेधात्मक है। वे कहते हैं कि ईसाई धर्म में आस्था रखनेवाले व्यक्ति को आत्महत्या नहीं करनी चाहिए। सन्त अगस्ताइन (St. Augustine) का विचार आत्महत्या के बारे में बहुत ही प्रतिरोधात्मक है। वे स्पष्ट शब्दों में व्यक्ति को आत्महत्या करने से मना करते हैं। बाद में आत्महत्या करनेवाले व्यक्ति को चर्च विरोधी बताते हुए कहते हैं कि आत्महत्या करने -वाला व्यक्ति चर्च द्वारा धार्मिक कानून या परम्परा का अपमान करता है। ऐसे व्यक्ति पूरे समाज और सम्पूर्ण मानव समुदाय के लिए अभिशाप है। जूड़ा नामक व्यक्ति का उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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