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________________ समाधिमगण और अन्य धार्मिक परम्पगाएँ इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थों में इच्छापूर्वक देहत्याग करने के कई उदाहरण मिलते हैं। किन्तु यहाँ इच्छित देहत्याग करने के लिए व्यक्ति मुख्य रूप से बाह्य माधनों का उपयोग करता है, जो निम्मलिखित हैं - जलसमाधि, अग्निप्रवेश, विषभक्षण, अस्त्र-शस्त्र का उपयोग तथा ऊंचाई से नदी की धारा में कृदना या समतल जमीन पर कृदना आदि । इसके अतिरिक्त वह आहार-त्याग को भी अपनाता है। महाप्रस्थान के प्रसंग म इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है। जैन परम्परा (समाधिमरण) से तुलना - डॉ० सागरमल जैन ने जैनधर्म में वर्णित समाधिमरण (इच्छिनमरण) एवं हिन्दू धर्म (ब्राह्मण परम्परा) में वर्णित आत्ममग्ण के अन्तर को बड़े ही स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार "जहाँ हिन्दु परम्परा म जल एवं अग्नि में प्रवेश, गिरिशिखर से गिरना, विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध साधनों में मृत्यवगण का विधान है, वहाँ जैन परम्परा में सामान्यतया केवल उपवास द्वाग ही देहत्याग का विधान है। जैन-परम्परा शस्त्र आदि से होनेवाली तात्कालिक देहत्याग की अपेक्षा उपवास द्वारा की जानेवाली क्रमिक देहत्याग को ही अधिक प्रशस्त मानती है। यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ प्रसंगों में तात्कालिक मृत्यवगण को स्वीकार किया गया है। तथापि सामान्यतया जैन आचार्यों ने राग-द्वेष वश मृत्यवरण जिसे प्रकारान्तर से आत्महत्या भी कहा जा सकता है कि आलोचना की है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि गिरिपतन या अग्निप्रवेश के द्वारा किया जानेवाला मग्ण लोकमढ़ता है। जैनों की दृष्टि में समाधिमरण का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं वरन् देहासक्ति का परित्याग है। जिस प्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित है, उसी प्रकार मृत्यु का आकांक्षा भी दृषित कही गयी है।६ इस प्रकार जैन विद्वानों ने हिन्दु परम्परा में अपनाए गए देहत्याग को एक तरह से आत्महत्या की कोटि में रखकर इसे समाधिमरण से भिन्न बताया है। इसके पीछे उनका यह तर्क है कि हिन्दू परम्परा में जो मृत्युवरण किया जाता है उसके पीछे मृत्यु की कामना होती है। इसी कारण मृत्युवरण करने के लिए हिन्दू लोग बाह्य विधियों का सहारा लेते. हैं, यथा- विषपान, अग्निप्रवेश, जलसमाधि, आदि । लेकिन यहाँ वे इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं कि इन विधियों से जो मरण ग्रहण किया जाता है उसके पीछे व्यक्ति के मन में मृत्यु की आकांक्षा नहीं होती है, वरन् मोक्ष-प्राप्ति की ही आकांक्षा होती है। मेरी दृष्टि में समाधिमरण करनेवाल के मन में भी मोक्ष-प्राप्ति की ही आकांक्ष रहती है। क्योंकि मानव मन आकांक्षाओं से रहित हो ही नहीं सकता है, भले ही उसकी आकांक्षा उच्च भावना से पूर्ण हो, लेकिन आकांक्षा तो होती है। वैसे भी मोक्ष-भावना को सद्राग कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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