SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण एवं ऐच्छिक मृत्युवरण २०५ मां-बाप या पालक को ही सब कुछ करना होता है, ठीक उसी तरह पालतू जानवरों के बारे में भी उसके मालिक या पालक का कर्तव्य होता है। यहाँ हम ठीक से विचार करें तो एक ही बात पाते हैं कि गाँधी जी ने मात्र वेदना से छुटकारे के लिए ही बछड़े को मरणदान दिया। उन्हें जब यह ज्ञान हो गया कि यह बछड़ा मरने से बच नही पाएगा। अपने रोग की पीड़ा को वह सहन नहीं कर पा रहा है। बोलने की शक्ति नहीं रहने के कारण अपनी वेदना को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा है। अतः ऐसी स्थिति में उसके पालनकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह उस बछड़े को उस असह्य वेदना से मुक्ति दिलाए । गाँधी जी ने भी उस बछड़े को असह्य वेदना से मुक्ति दिलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री की, क्योंकि उन्हें चिकित्सकों ने यह पहले ही बता दिया था कि यह बछड़ा मरने से बचेगा नहीं । मृत्युदान की इस चर्चा का यही निष्कर्ष निकलता है कि अनिवार्य तथा असाध्य, असह्य वेदना से पीड़ित व्यक्ति को उसकी वेदना से मुक्ति दिलानेवाला तथा उस वेदना से मुक्ति पानेवाला अपराधी नहीं है। इस तरह का मरणदान पानेवाला व्यक्ति मृत्युवरण करने के लिए स्वतन्त्र है । समकालीन जैन विचारक आचार्य महाप्रज्ञ ने व्यक्ति के ऐच्छिक मृत्युवरण के प्रश्न पर तर्कपूर्ण ढंग से अपने विचार प्रतिपादित किए हैं। उनके अनुसार पहाड़ से लुढ़ककर, जल में डूबकर आग में जलकर, फाँसी के फन्दे पर झूलकर व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। इस विधि से प्राप्त मरण कभी भी इष्ट नहीं होता, क्योंकि इसके पीछे भावना समीचीन नहीं होती। आवेग और उत्तेजना से युक्त होने के कारण यह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर है। वर्तमान समय में ऐच्छिक मृत्युवरण के क्षेत्र में अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। पहला प्रश्न है आत्महत्या का दूसरा सती होने का, तीसरा राजनीतिक स्तर पर अनशन का और चौथा धार्मिक स्तर पर अनशन का । मरणात्मक घटना सब में समान है। क्या उद्देश्य की दृष्टि से भी सब समान है ? इनकी परीक्षा के लिए सिर्फ एक ही उपाय है, जिस देहत्याग की पृष्ठभूमि में उद्देश्य की पूर्ति प्रधान है और मरण प्रासंगिक है, मन शान्त, प्रशान्त और समाधिपूर्ण है, किसी तरह का आवेग, संवेग, उद्वेग, उत्तेजना आदि नही है, वह देहत्याग प्रशस्त है और इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है। वे पुनः कहते हैं कि आत्मदाह को भी उक्त कसौटी पर कसें । क्या उसके पीछे रागात्मक और द्वेषात्मक संवेग जुड़ा हुआ नहीं है और यदि नहीं है तो क्या आत्मदाह की अपेक्षा साधना का सौम्यमार्ग नहीं अपनाया जा सकता है ? राजनीतिक स्तर पर किए जानेवाले अनशन में क्या आत्मशोधन की भावना है? यदि है तो उसके उद्देश्य का विचार अपेक्षित है। जिस अनशन में उद्देश्य प्रशस्त और आत्मशुद्धि दोनों होते हैं, उस अनशन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy