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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप व्यक्ति अनशनपूर्वक दीर्घकाल तक अपने शरीर और कषायों को क्षीण करता है। अनशन काल में होनेवाले परीषहों को अत्यन्त शान्त भाव से सहन करता है। उस समय उसके मन में किसी प्रकार का भाव नहीं रहता है। वह अपने गुण-दोषों की आलोचना कर सभी से क्षमा माँगता है तथा समस्त जीवों को भी क्षमा प्रदान करता है। वह इस संसार को, धन-वैभव को, अपने इष्टजनों को, सुख-दुःख को तथा अन्यान्य भौतिक पदार्थों को बन्धन का कारण समझता है और उनसे दूर रहने का प्रयत्न करता है। उनसे मुक्ति पाने के लिए वह बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है। समाधिमरण का अधिकतम समय बारह वर्ष का होता है। इन बारह वर्षों में वह नाना प्रकार के तपों को करते हुए आहार आदि को सीमित करते हुए, अन्त में सब त्याग करता है तथा मृत्यु के आगमन की प्रतिक्षा समभाव से करता है। इस क्रम में वह शीघ्रमरण या दीर्घकालिकमरण की कामना नहीं करता है। मात्र मृत्यु के आगमन की प्रतीक्षा करता है और जब मृत्यु का आगमन होता है तो सहर्ष भाव से उसे स्वीकार करता है। दूसरी ओर आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति कोई ऐसी विधि अपनाता है जिससे कि उसका अन्त शीघ्रतापूर्वक कम कष्टों के साथ हो। जैसेविषपान, फांसी, कलाई की धमनियों को काटना, पहाड़ से गिरना, आग में जलना आदि। उसके अन्तस् में शीघ्र मरने की व्याकुलता होती है। मृत्यु के समय भी वह सांसारिक वस्तुओं से अपनी आसक्ति का त्याग नहीं कर पाता है। अपने धन, वैभव, परिवार आदि के प्रति उसके मन में किसी तरह की भावना अवश्य रहती है। समाधिमरण करनेवाला व्यक्ति समस्त प्रकार के सांसारिक उपसर्गों का साहसपूर्वक सामना करता है। उपसर्गों को सहन करते वक्त उसके मन में किसी तरह का भी भाव नहीं रहता है। उपसर्गों का सहन वह इसलिए करता है कि यह उसके लिए परीक्षा का काल है और परीक्षा में उसे सफल होना है। लेकिन आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति जीवन के संघर्षों, संसार के उपसर्गों से घबरा जाता है। अपनी समस्याओं से जूझने से बचने के लिए ही वह आत्महत्या कर लेता है। एक तरह से वह जीवन से पलायन कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाधिमरण और आत्महत्या में बहत बड़ा अन्तर है। दोनों में परिस्थिति, विधि, भावना आदि सभी बातों को लेकर अन्तर है। एक जहाँ मृत्य का साहसपूर्वक सामना करता है, वहीं दूसरा मृत्यु से पलायन करता है। एक जहाँ मृत्यु को अपने सामने झुकाता है, वहीं दूसरा मृत्यु के सामने झुक जाता है। एक जहाँ मृत्य को हराता है, वहीं दूसरा मृत्यु के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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