SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८: आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन हैं वे ही परिस्थिति के बदलने पर परिस्रव अर्थात् मोक्ष के हेतु बन सकते हैं । इसी तरह जो कर्म मुक्ति के हेतु हैं वे ही अनेक बार बन्धन के हेतु बन जाते हैं। आचाराङ्ग टीका में शीलांकाचार्य ने साधक की भाव-धारा को आस्रव-संवर का आधार बताते हुए यही कहा है कि सामान्य व्यक्ति के लिए जो आस्रव ( कर्म-बन्धन ) के स्थान हैं ज्ञानी पुरुष के लिए वे हो निर्जरा के हेतु बन जाते हैं । स्त्री, वस्त्र, अलंकार, शय्या आदि विषयसुख के कारणभूत पदार्थ कर्म-बन्ध के हेतु होने से आस्रव रूप माने गये हैं । ये ही पदार्थ विषय से पराङ्मुख या विरागी साधक के लिए कर्म निर्जरा के हेतु बन जाते हैं। इसी तरह तप, जप ध्यान, दशविध समाचारो आदि जो धर्मानुष्ठान कर्म-निर्जरा के कारण हैं वे ही अज्ञानी व्यक्ति के अहंकार आदि अशुभ अध्यवसाय या मनोभावों के कारण आस्रव रूप हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में जो आचार-नियम ( संयम-स्थान) परिस्रव के हेतु होते हैं, असम्बद्ध व्यक्ति के लिए वे आस्रव के हेतु बन जाते हैं और जो कर्म बन्धन के हेत हैं विरागी के लिए वे ही परिस्रव के हेतु बन जाते हैं । । आचाराङ्ग टीका में यह भी उल्लेख है कि जितने संसार के हेतु हैं सत्यनिष्ठ के लिए वे सब निर्वाण-सुख के हेतु बन जाते हैं। अध्यात्मसार और ओनियुक्ति में भी यही बात अन्य शब्दों में कही गई है। सामान्यतया लौकिक अनुभव में भी यह देखा जाता है कि तीर्थ-यात्रा, देव-दर्शन, देव-पूजन, भोजन, दान आदि जैसी सामान्य क्रियाएँ एक के लिए धर्मरूप होती हैं तो दूसरे के लिए पापरूप बन जाती हैं। निष्कर्ष यह कि किसी वस्तु, घटना, परिणाम या धर्मानुष्ठान की शुभाशुभता के सन्दर्भ में ऐकान्तिक दष्टिकोण से निर्णय करना उचित नहीं है । कर्ता के अध्यवसायों या मनोभावों की भिन्नता के कारण एक ही स्थिति, क्रिया या घटना किसी के लिए कर्म-बन्ध ( आस्रव ) का कारण बन जाती है तो किसी के लिए कर्म-निर्जरा (परिस्रव) का। आचार्य अमितगति ने भी योगसार में स्वीकार किया है कि इन्द्रिय विषय का सेवन करने पर जहाँ अज्ञानी कर्म-बन्ध करता है, वहाँ ज्ञानी कर्म-बन्धन से छूटता है-कर्म की निर्जरा करता है । वस्तुतः जैनदर्शन में बाह्य विधि-विधानों का उतना आग्रह नहीं है जितना कि आन्तरिक शुद्धि या भावानात्मक परिणति का है। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy