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________________ उपसंहार : २८३ T आत्म-स्वातन्त्र्य के सन्दर्भ में भी आचारांग का दृष्टिकोण स्पष्ट है । वह यह मानता है कि बन्धन और मुक्ति- दोनों के लिये आत्मा स्वयं ही उत्तरदायी है । इस प्रकार पाश्चात्य नीति दर्शन में स्वीकृत तीन पूर्व मान्यताओं - १ - आत्मा की अमरता, २ – इच्छा स्वातन्त्र्य और ३ईश्वर का अस्तित्व - में से आत्मा की अमरता और इच्छा - स्वातन्त्र्य को आचारांग स्वीकार करके चलता है । नैतिक जगत् के नियामक एवं शुभाशुभ कर्म फल प्रदाता के रूप में ईश्वर का अस्तित्व उसमें स्वीकार नहीं किया गया है । वह आत्मा की शुद्ध अवस्था को ही परमात्मा के रूप में देखता है परन्तु उसे जगत् का कर्ता एवं नियन्ता नहीं मानता । उसमें नैतिक व्यवस्था हेतु ईश्वर के स्थान पर 'कर्म का नियम' स्वीकार किया गया है । कर्म की नैतिकता - अनैतिकता के प्रश्न को पाश्चात्य नीति दर्शन के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं तो हम पाते हैं कि पाश्चात्य सुखवादी विचारक यह मानते हैं कि एक ही कर्म देश, काल और परिस्थिति की भिन्नता के अनुसार कभी नैतिक बन जाता है और कभी अनैतिक । इसके विपरीत काण्ट की मान्यता है कि जो नैतिक है वह कभी अनैतिक नहीं ता और जो अनैतिक है वह कभी नैतिक नहीं होता । सुखवादियों के अनुसार नीति देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति सापेक्ष है अर्थात् इनके आधार पर कर्म की नैतिकता परिवर्तित होती रही है जबकि काण्ट के अनुसार किसी कर्म की नैतिकता देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति निरपेक्ष है । भारतीय नीतिशास्त्र में यही प्रश्न उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के रूप में चर्चित रहा है । प्रस्तुत समस्या के सन्दर्भ में आचारांग का दृष्टिकोण एकान्तिक नहीं है । जहाँ वह एक ओर अहिंसा को सार्वभौम नैतिक सिद्धांत के रूप में स्वीकार करता है वहीं दूसरी ओर अहिंसा के अपवाद भी प्रस्तुत कर देता है । इस प्रकार निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता के प्रश्न को लेकर आचारांग कोई एकांगी दृष्टिकोण नहीं अपनाता है । इसी सन्दर्भ में मैंने सत्य, अहिंसा आदि के उन सभी अपवादों की चर्चा की है जिनका उल्लेख आचारांग में उपलब्ध होता है । कर्म की नैतिकता के सम्बन्ध में उसके बाह्य एवं आभ्यन्तर पक्षों का विवाद भी बहुचर्चित रहा है। पाश्चात्य चिन्तकों में इस बात को लेकर मतभेद है कि कर्म की नैतिकता का आधार कर्म का प्रेरक तत्त्व है या स्वयं कर्म का स्वरूप या कर्म परिणाम । कुछ लोगों ने कर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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