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________________ श्रमणाचार : २७३ पच्चक्खाएज्जा'२५८ इस अनशन को स्वीकार करने वाले भिक्षु के लिए हाथ-पैर आदि शारीरिक अवयवों का तनिक भी संकोच - विस्तार करने का प्रत्याख्यान करना होता है । साथ ही चलने-फिरने आदि से सम्बन्धित सभी क्रियाओं का त्याग करना होता है । दूसरे शब्दों में शरीर एवं शरीरगत सभी प्रवृत्तियों का पूर्णतया त्याग कर निश्चेष्ट वृक्ष की भाँति एक ही नियत स्थान में पड़े रहने का नाम पादोपगमन अनशन है । जैसा कि इसके नाम से ही ज्ञात होता है कि 'पादप' (वृक्ष) के समान एक स्थान में निश्चल रहना । इसे विभिन्न ग्रन्थों में 'पादोपगमन', 'प्रायोपगमन' और 'प्रायोग्यगमन' भी कहा गया है। अभिधान राजेन्द्र कोष में भी पादोपगमन के स्वरूप को व्यक्त करते हुए कहा है पाओपगमं भणियं सम-विसमे पायवो जहा पडितो । नवरं परप्पओगा कंपेज्ज जहा चल तरु व्व २५९ स्थान, विधि एवं महत्त्व : पादोपगमन अनशन ग्रहण करने के योग्य स्थान, स्थान की निर्दोषता, पादोपगमन ग्रहण विधि एवं उसके माहात्म्य का सारा वर्णन इत्वरिक अनशन के समान ही है किन्तु दोनों अनशन में अन्तर इतना ही है कि इत्वरिक अनशन में गमनागमन के लिए भूमि की निश्चित मर्यादा होती है। उससे बाहर मुनि तनिक भी अंग-प्रत्यंगों का संचालन नहीं कर सकता, जबकि पादोपगमन अनशन में मल-मूत्र विसर्जन के अतिरिक्त उपर्युक्त समूची शारीरिक प्रवृत्तियों के संचालन का पूर्णतः त्याग होता है । इस अनशन में वह अचेतनवत् पड़ा रहता है । आचारांग में पूर्वोक्त दोनों अनशनों से इसके वैशिष्ट्य को अभिव्यंजित किया गया है अयं चायततरे सिया जो एवं अणुपालए । सव्वगायनिरोधेवि ठाणातो ण विउब्भमे ॥ २६० यह अनशन भक्तप्रत्याख्यान एवं इत्वरिक अनशन से भी विशिष्ट - तर या उत्तमतर है । जो भिक्षु उक्त विधि से इसका अनुपालन करता है, वह समूचे शरीर के निरोध (अकड़) हो जाने पर भी अपने स्थान से विचलित नहीं होता है अर्थात् कष्टों या परिषहों से घबराकर स्थान परिवर्तन नहीं करता है। अपितु वहीं निश्चेष्ट रहकर समभावपूर्वक कष्टों को सहते हुए आत्मचिन्तन में लीन रहता है । यही उसका स्वरूप है और यही उसकी विशिष्टता है । इसे कठोरतम साधना के कारण ही १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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