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________________ २६६ : आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन अर्थात् धैर्यवान्, संयमी, मतिमान (हेयोपादेय - पारिज्ञाता) भिक्षु साधना के क्रम में प्राप्त होने वाले अनशन का उपयुक्त समय जानकर या इस सम्बन्ध में सब कुछ जानकर उनमें से (भक्तप्रत्याख्यान इत्वरिक और पादोपगमन में से) एक और अद्वितीय (समाधिमरण) को अपनाए । यहाँ सूत्रकार ने 'अणुपुवेण विमोहाई' पद द्वारा क्रम प्राप्त संलेखना या दोनों प्रकार के अनशनों की ओर संकेत किया है । (विशेष विवेचन के लिये आचारांग १।८।८ की टीका देखें) भिक्षु मृत्यु से भय नहीं खाता है । वह प्रारम्भ से ही जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए अनशन के क्रमप्राप्त और आकस्मिक अन्तर्बाह्य विधि-विधानों, कृत्याकृत्य को समझकर तथा अपनी शक्ति को देखते हुए इनमें से यथायोग्य एक ही संलेखना का चयन करके मृत्यु को सफल बनाने का प्रयास प्रारम्भ कर देता है और विभिन्न तपश्चर्या आदि के द्वारा अपने को समाधिमरण के योग्य बना लेता है । सूत्रकार क्रम से प्राप्त होने वाले अनशन की ओर इंगित करते हुए कहता है कि धर्म के पारगामी प्रबुद्ध भिक्षु (संलेखना - साधक) बाह्य (शरीर उपकरणादि) और आभ्यन्तर ( रागादि - कषाय) दोनों रूपों की हेयता अनुभव करके ( प्रव्रज्यादि के ) क्रम से चल रहे संयमी शरीर को छोड़ने या विमोक्ष का अवसर जानकर आरम्भ या प्रवृत्ति से सम्बन्ध तोड़ लेते हैं । 239 यहाँ 'आरम्भाओ' शब्द हिंसा के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है, अपितु आहारादि के अन्वेषण रूप जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमे निवृत्त हो जाना है । इस सम्बन्ध में टीकाकार २४० का भी यही मत है । समाधिमरण के लिये उद्यत साधक को संलेखना करना आवश्यक है और संलेखना में 'कषाय की तनुता, आहार की अल्पता और तितिक्षा ( परीषह आदि को सहना ) आवश्यक है । यदि आहार की अल्पता करते-करते वह भिक्षु संलेखना काल में ग्लान हो जाए अथवा आहार करने से ग्लानि होती हो तो वह उस ग्लान अवस्था में आहार का सर्वथा त्याग कर दे । २४१ अर्थात् आहार का त्याग कर किसी भी अनशन को अपना ले । कहा गया है कि संलेखना एवं अनशन की साधना में अवस्थित भिक्षु जीवन-मरण की आकांक्षा से ऊपर उठकर समभाव पूर्वक साधना में संलग्न रहे तथा समाधि का सम्यक्तया अनुपालन करते हुए अन्तर्वाह्य का व्युत्सर्गं कर शुद्ध अध्यात्म की एषणा करे । २४२ अबाध रूप से चल रहे संलेखना - कालीन जीवन में यदि बीच में ही कोई विघ्न उपस्थित हो जाए और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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