SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणाचार : २६१ कायोत्सर्ग के चार अभिग्रह: आचारांग में कहा है कि श्रमण-श्रमणी को निर्जीव एवं निर्दोष स्थान की एषणा कर चार प्रतिमाओं की धारणा करनी चाहिए (१) मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में स्थिर रहँगा। आवश्यकतानुसार अचित्त दीवार आदि का अवलम्बन लूंगा। शरीर से हाथ-पैर आदि का संकोच विस्तार भी करूंगा तथा मर्यादित भूमि में पैरों को फैलाऊँगा। (२) मुनि अचित्त स्थान में स्थिर रहकर दीवार आदि का सहारा ले सकता है, हस्तादि का संकुचन-प्रसारण भी कर सकता है किन्तु अपने स्थान से रंच मात्र भी इधर-उधर संक्रमण नहीं कर सकता। (३) मुनि यह संकल्प करता है कि मैं अचित्त स्थान में स्थिर रहकर दीवार आदि का सहारा लूंगा किन्तु हाथ-पैर आदि के संकोच प्रसार को रोककर एक स्थान पर स्थिर रहूँगा। (४) यहाँ मुनि को साधना चरमावस्था पर पहुँच जाती है । वह यह संकल्प करता है कि अचित्त स्थान में खड़े होकर कायोत्सर्ग करूँगा परन्तु दीवार आदि का सहारा नहीं लूंगा। हाथ-पैर आदि नहीं हिलाऊँगा अपितु एक स्थान पर स्थिर होकर रहूँगा अर्थात् कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर का सम्यकतया निरोध करूँगा। उस समय यदि कोई मेरे केश, रोम, नख और श्मथ का उत्पाटन करेगा तो भी मैं अपने कायोत्सर्ग ध्यान से विचलित नहीं होऊँगा ।२२४ यथार्थतः उस समय साधक अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को रोककर आत्म-केन्द्रित हो जाता है। तथा देहाभिमान से मुक्त होकर आत्म-दर्शन में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने शरीर पर होने वाली बाहरी क्रियाओं का पता भी नहीं चलता। 'वोसट्टकाये वोसटठकेस मंसु लोमनहे संनिरुद्धं वा' का प्रयोग करके सूत्रकार ने इस बात को ओर संकेत किया है कि ये दो पद योग-साधना के मूलभूत अंग हैं । सम्भवतः इन्हीं अवधारणों के आधार पर परवर्ती योग-ग्रन्थों की रचना हुई हो। वैदिक परम्परा में भी तपोसाधना आवश्यक मानी गई है। वेद,२२५ उपनिषद्२२६ शतपथ ब्राह्मण२२७ गीता,२२८ मनुस्मृति२२९ आदि में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परीषह परीषह नाम से ही स्पष्ट है कि जो सहा जाय वह परीषह कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy